________________
२३८
एकादशो लम्बः । पश्चानन इवामौक्षादसिपञ्जर आहितः। क्षणेऽपि दुःसहे देहे देहिन्हन्त कथं वसेः ॥३७॥ _अन्वयार्थः- (हे देहिन् ) हे देहिन् ! ( हन्त ! ) खेद है। (असिपञ्जर आहितः) त् लोहेके पिंजरेमें कैद हुए (पञ्चानन इव) सिंहकी नाई जो ( आमोक्षात् ) बिना मोक्षके ( क्षणेऽपि दुःसहे ) क्षण मात्र भी नहीं सहा जाय ऐसे (देहे ) शरीरमें ( कथं ) किस प्रकार ( वसेः ) रहता है ॥ ३७ ।। तन्नास्ति यन्न वै भुक्तं पुद्गलेषु मुहुस्त्वया । तल्लेशस्तव किं तृप्त्यै बिन्दुः पीताम्बुधेरिव ॥३८॥ ___अन्वयार्थः-और हे आत्मन् ! ( पुद्गलेषु ) पुद्गलोंमें (तद नास्ति) भी कोई परमाणु ऐसा नहीं है ( यत् ) जो ( त्वा) तूने ( मुहुः ) बार २ ( न वै भुक्तं ) नहीं भोगा हो और ( तल्लेशः ) इन पुद्गलोंका लेश ( पीता ) पी हुई ( अम्बुधेः) समुद्रकी ( बिन्दुः इव ) बूंदके समान ( किं ) क्या ( तव ) तेरी (तृप्त्यै) तृप्ति के लिये है (अपितु न स्यात्) कदापि नहीं हैं ॥३८॥ भुक्तोज्झितं तदुच्छिष्ट भोक्तुमेवोत्सुकायसे । अभुक्तं मुक्तिसौख्यं त्वमतुच्छं हन्त नेच्छसि ॥३९॥
अन्वयार्थः-और हे आत्मन् (त्वं) तू (भुक्तोज्झितं) भोगकर छोड़ी हुई (तद् उच्छिष्ठं) उस ही उच्छिष्टको (भोक्तुं एव) फिर भोगनेके लिये (उत्सुकायसे) उत्कंठित हो रही हैं। (हन्त !) खेद है ! लो भी (त्वं) तू (अभुक्तं) पूर्वमें नहीं किया है भोग जिसका ऐसे (अतुच्छ) महान (मुक्तिसौख्यं) मोक्षरूपी सुखको (न इच्छसि) इच्छा नहीं करता है ॥ ३९ ॥