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एकादशो लम्बः । आत्तसारं वपुः कुर्यास्तथात्मंस्तत्क्षयेऽयभीः। आत्तसारेक्षुदापि न हि शोचन्ति मानवाः ॥१४॥ __अन्वयार्थः-(हि) निश्चयसे (यथा) जिस प्रकार (मानवाः) वराई बोनेवाले मनुष्य (आत्तसारेक्षुदाहेऽपि) गृहण कर लिया है रस रूपी सार जिसका ऐसे ईखके छिलकोंके जलानेमें (न शोचंति) शोक नहीं करते हैं । (तथा) उमी प्रकार (हे आत्मन् ) हे आत्मन् ! (त्वं) तू भी (आत्तसारं) गृहीतसार इस (वपुः) शरीरको (कुर्या:) करले (यतः) जिससे तु (तत्क्षयेऽपि) इस शरीरके नाश होनेपर भी (अभी:) भय रहित रहवे ॥ ५४ ॥
७--अथास्रवानुप्रेक्षा। अजस्त्रमानवन्त्यात्मन्दुर्मोचाः कर्मपुद्गलाः। तैः पूर्णस्त्वमधोधः स्था जलपूर्णों यथा प्लवः ॥१२॥
अन्वयार्थः---( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् (दुर्मोचाः) बड़े दुःखसे अलग होनेवाले (कर्म पुद्गलाः) कर्म रूपी पुद्गल (अनत्रं निरंतर ( आश्रवन्ति ) अते हैं (तैः पूर्णः ) और उन कर्मोसे परिपूर्ण भरा हुआ त्वं) तू ( न पूर्णः प्लवः यथा ) जलसे भरी हुई नौकाके समान ( अधोऽधःस्याः ) नीचे ही नीचे चला जात है अर्थात् अधोगतिको प्राप्त होता जाता है ॥ ५५ ॥ तन्निदान तवैवात्मल्योगभावी सदातनौ। तो विद्धि सपरिस्पन्द परिणाम शुभाशुभम् ॥५॥
अबयार्थः -----( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! ( तन्निदान) इस आत्रबके कारण ( तवैव ) तेरे ही ( सदातनौ) अनादि