Book Title: Kshatrachudamani
Author(s): Niddhamal Maittal
Publisher: Niddhamal Maittal

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Page 292
________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २५९ अन्वयार्थः-(हे भगवान् ! ) हे भगवान् ! ( अहं ) मैं ( भवरोगेण ) संसारके जन्म मरणके रोगसे ( सदा ) हमेशासे ( पीड़ितः ) पीडित और ( भीतः अस्मिः ) भयभीत हूं तो भी (त्वयि अकारणबैद्येऽपि) आपके अकारण वैद्य होनेपर भी (किं) क्या ( तस्य कारणा ) उसकी वेदना ( सह्या ) सहने योग्य है ? अर्थात् आप इस वेदनाको शीघ्र ही नष्ट करें ॥ ९६ ॥ त्वं सार्वः सर्वविद्देव सर्वकर्मणि कर्मठः।। भव्यश्चाहं कुतो वा मे भवरोगो न शाम्यति ॥९॥ ___ अन्वयार्थः- हे देव ! ) हे देव ! (त्वं) आप ( सार्वः ) सबके हित करने वाले ( सर्ववित् ) सब कुछ देखने जाननेवाले और (सर्वकर्मणि कर्मठः) संपूर्ण संचित कर्मों के नाश करनेमें शूरवीर (असि) हो (च) और (अहं) मैं (भव्यः) एक भव्य हूं तो (मे भवरोगः) मेरा संसारका रोग (कुतः वा न शाम्यति) क्यों शान्त नहीं होता ॥ ९७ ॥ निर्मोह मोहदावेन देहजीर्णोरुकानने । दह्यमालतया शश्वन्मुह्यन्तं रक्ष रक्ष माम् ॥ ९८ ॥ ____ अन्वयार्थः----(हे निर्मोह !) हे मोहरहित जिनेन्द्र ! (देह जीर्णोरुकानने) देह रूपी पुरानी बड़ी भारी अटवीमें (मोहदावेन) मोह रूपी दावानलसे (दह्यमानतया) जलनेके कारण (शश्वत् मुह्यन्तं) निरंतर विवेक रहित ( मां ) मुझको ( रक्ष ! रक्ष ! ! ) रक्षा करो ! ! ॥ ९८ ॥ संसारविषवृक्षस्य सर्वापत्फलदायिनः । अङ्करं रागमुन्मूलं वीतराग विधेहि मे ॥ ९९ ॥

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