Book Title: Kshatrachudamani
Author(s): Niddhamal Maittal
Publisher: Niddhamal Maittal

View full book text
Previous | Next

Page 293
________________ २६ एकादशो लम्बः । अन्वयार्थः--(हे वीतराग !) हे वीतराग ! (सर्वापत्फलदायिनः) सर्व प्रकारकी विपत्ति रूपी फलको देनेवाले (संसारविष वृक्षस्य) संसार रूपी विषवृक्षके (अंकुर) अंकुरके समान (मे राग) मेरे राग भावको (उन्मूलं विधेहि) जड़से रहित करदे ॥ ९९ ॥ कर्णधार भवार्णोधेमध्यतो मजता मया । कृच्छेण बोधिनौलब्धा भूयानिर्वाणपारगा ॥१०॥ __अन्वयार्थः-(हे कर्णधार !) हे सच्चे खेवटिया भगवत् ! (भवार्णोधेः मध्यतः) संसार रूपी समुद्रके मध्यमें ( मज्जता मया) डूबते हुए मेरे द्वारा (कृच्छ्रेणलब्धा) बड़ी कठिनाईसे प्राप्त की हुई (बोधिनौः ) रत्नत्रय रूपी नौका (निर्वाणपारगा भूयात् ) मुझे मोक्ष रूपी पार पर पहुंचाने वाली होवै ॥ १० ॥ इति स्तोत्रावसाने च लब्ध्वायं त्रिजगद्गुरोः । अनुज्ञां जिनदीक्षायामानमद्गणनायकम् ॥ १०१ ॥ अन्वयार्थः- इति त्रिजगद्गुरोः) इस प्रकार तीन जगतके स्वामी महावीर स्वामीके (स्तोत्रावसाने) स्तवनके अन्तमें ( अयं ) इन्होंने ( अनुज्ञां लब्ध्वा ) आज्ञा पाकर ( जिन दीक्षायाम् ) जिन दीक्षा लेनेके प्रारंभमें ( गणनायकम् ) गणधरको (आनमत्) नमस्कार किया ॥ १०१ ॥ प्राज्ञः प्रव्रज्य तत्पा, तपस्तेपेऽतिदुश्वरम् । येन कर्माष्टकस्यापि नष्टता स्याद्यथाक्रमम् ॥१०२॥ ____ अन्वयार्थः-फिर ( प्राज्ञः ) बुद्धिमान राजाने ( प्रव्रज्य ) दीक्षा ग्रहण करके ( तत्पार्श्वे ) महावीर स्वामीके निकट ( अति

Loading...

Page Navigation
1 ... 291 292 293 294 295 296