Book Title: Kshatrachudamani
Author(s): Niddhamal Maittal
Publisher: Niddhamal Maittal

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Page 288
________________ क्षत्र चूड़ामणिः । धर्मश्रुतेर्वभूवायं धार्मविद्योऽति निर्मलः । अत्युत्कटो हि रत्नांशुस्तद्ज्ञवेकटकर्मणां ॥ ८४ ॥ अन्वयार्थ : — और फिर (धर्मश्रुतेः) धर्मका स्वरूप सुनने से ( अयं ) यह जीवंधर कुमार ( अति निर्मल: ) अत्यंत निर्मल ( धार्मविद्यः वभूव ) धर्म विद्याके जाननेवाले होगये । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे जिस प्रकार ( रत्नांशुः ) रत्नों की किरणें (तदज्ञवे - कटकर्मणा) रत्नको शान पर रखनेवाले चतुर मनुष्यकी चमक आनेकी चतुराई से ( अत्युत्कटः अभूत् ) अत्यन्त उज्वल होजाती हैं उसी प्रकार जीवंधर स्वामी और धर्मका स्वरूप सुनने से और भी बड़े भारी तत्वज्ञाता हो गये || ८४ ॥ पुनश्चारणयोगीन्द्रः पूर्व जन्मबुभुत्सया । भूपेन परिपृष्टोऽयमाचष्टास्य पुराभवम् ॥ ८५ ॥ अन्वयार्थ : - ( पुनश्र ) फिर ( पूर्वजन्मबुभुत्सया ) अपने पूर्वजन्म के वृतान्त को जानने की इच्छा से ( भूपेन ) राजा से ( परिपृष्टः ) पूछे गये हुए ( अयं चारुणयोगीन्द्रः ) उन चारुण मुनिने ( अस्य पुराभवम् ) इन जीवंधर महाराजके पूर्वजन्मका वृतान्त ( आचप्ट) इस प्रकार कहा || ८५ ॥ अब अगाड़ीके ६ श्लोकोंमें चारुण मुनि जीवंधर महाराजके पूर्वजन्मका वृत्तान्त कहते हैं ॥ भूपेन्द्र धातकीपण्डे भूम्यादितिलके पुरे । सूनुः पवनवेगस्य राज्ञोऽभूस्त्वं यशोधरः ॥ ८६ ॥ अन्वयार्थः - ( हे भूपेन्द्र ! ) हे राजन् ! (घातकी पण्डे ) धातुकी खण्ड नामके द्वीपमें ( भूम्यादितिलके पुरे ) भूमितिलक

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