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क्षत्रचूड़ामणिः । . २४३ अन्वयार्थः- हि ) निश्चयसे ( कर्मशिलिलनः ) कर्मरूपी कारीगिरकी (सामर्थ्यात् ) चतुराईसे ( अङ्गं) शरीर अप्पष्टं दृष्टं) स्पष्ट दिखाई नहीं देता है ( अतः ) इसलिये (रम्यं भाषते ) सुन्दर मालूम होता है (ऊहे सति) परन्तु विचार करनेपर इसमें ( मलमांसास्थिमज्जतः) मल, मांस, हड्डी और मजाके सिवाय ( अन्यत् किं स्यात् ) और क्या है अर्थात् शरीर इन ही अपवित्र वस्तुओंसे बना है ॥५१॥ दैवादन्तास्वरूपं चेहहिहस्य किं परैः। आस्तामनुभवेच्छेयमात्मन्को नाम पश्यति ॥५२॥
अन्वयार्थः-(हे अत्मन् ! ) हे आत्मन् ! ( परैः किं ) और तो क्या ( चेत् ) यदि ( दैवात् ) दैवयोग से ( देहस्य ) इस शरीरका ( अन्तः स्वरूपं ) भीतरी हिस्सा ( बहिात् ) शरीरसे बाहर निकल आवे तो ( इयं अनुभवेच्छा ) इसके अनुभव करने की इच्छा तो ( दूरे आस्तां ) दूर ही रहे ( को नाम पश्यति ) कोई इसे देखेगा भी नहीं ॥ ५२ ॥ एवं पिशितपिण्डस्य क्षयिणोऽक्षयशंकृतः । गात्रस्यात्मन्क्षयात्पूर्व तत्फलं प्राप्य तत्त्यज ॥ ५३॥ ___ अन्वयार्थ:-( एवं च ) इस प्रकार ( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! ( क्षयिणाः ) नाशको प्राप्त होनेवाले ( अक्षयशंकृतः ) किन्तु अविनाशी सुखके कारणी भूत (पिशित पिण्डस्य गात्रस्य ) इस मांसके पिण्डरुप शरीरके (क्षयात् पूर्व ) नाश होनेसे पहले (तत्फलं प्राप्य ) इससे मोक्षरूपी फलको प्राप्त करके (तत्त्यन) इसको छोड़दे ॥ ५३॥