Book Title: Kshatrachudamani
Author(s): Niddhamal Maittal
Publisher: Niddhamal Maittal

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Page 270
________________ क्षत्रचूड़ामणिः । अन्वयार्थः-(आयुधीयैः) आयुधको लिये हुए (अतिस्निग्धैः) अत्यन्त प्यारे ( बंधुभिः ) बन्धुओंसे ( अभिसवृतः ) चारों ओरसे घेरे हुए और (रक्ष्यमाणः अपि) संरक्षित भी (जन्तुः) प्राणी ( पश्यताम् एव ) देखनेवालोंके ही अगाड़ी ( नश्यति ) नाशको प्राप्त होता है ॥ ३४ ॥ मन्त्रयन्त्रादयोऽप्यात्मस्वतन्त्रं शरणं न ते। किंतु सत्येव पुण्ये हि नो चेत्के नाम तैः स्थिताः॥३५ _अन्वयार्थः-(हे आत्मन् ! ) हे आत्मा ! (मन्त्रयन्त्रादयः अपि) मन्त्र यन्त्रादिक भी (ते) तेरे (स्वतंत्र) स्वतन्त्र (शरणं न) रक्षक नहीं हैं (किन्तु) क्योंकि ( पुण्ये सति एव ) पुण्य होने पर ही यह सब सहायता करते हैं ( नो चेत् ) यदि पुण्यका उदय नहीं है तो (तैः ) इन मन्त्र तन्त्रादिकोंसे ( के नाम स्थिताः) कौन संसारमें स्थिर रहे अर्थात् कोई भी स्थिर न रहे ॥ ३५ ॥ ३-अथ संसारानुप्रेक्षा । नटवन्नैकवेषेण भ्रमस्यात्मन्स्वकर्मतः।। तिरश्चि निरये पापादिविपुण्याद्यान्नरे ॥ ३६॥ अन्वयार्थः-(हे आत्मन् ! ) हे आत्मा ! ( त्वं ) तू (नैक वेषेण ) नाना प्रकारके वेष धारण करके ( नटवत् ) नटके समान ( स्व कर्मतः ) अपने कर्मोके वशसे ( भ्रमसि ) घूम रहा है और ( पापात् ) पापसे ( तिरश्चिनिरये ) तिर्यंच और नरक गतिमें, ( पुण्यात् ) पुण्यसे (दिवि ) स्वर्गमें और ( हयात ) पुण्य, पापसे (नरे) मनुष्य गतिमें जन्म धारण करता है ॥ ३६ ॥

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