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प्रथमोलम्बः ।
मुद्यन्ति देहिनो मोहान्मोहनीयेन कर्मणा । निर्मितान्निर्मिताशेषकर्मणा धर्मवैरिणा ॥ ७९ ॥
अन्वयार्थ - ( निर्मिता शेषकर्मणा ) सम्पूर्ण कर्मोका निर्माण करनेवाले (धर्मवैरिणा ) धर्मके शत्रु (मोहनीयेन कर्मणा ) मोहनीय कर्म से ( निर्मितात्) उत्पन्न (मोहातू) मोहसे (देहिनाम् ) प्राणी (मोहन्ति) अविवेकको प्राप्त होते हैं ।
अर्थात् यह मोहनीय कर्मका ही प्रभाव है कि आत्मा अपने स्वभावको भूलकर पर पदार्थमें लुभा रहा है || ७९ ॥ किं नु कर्तुं त्वयारब्धं किं नु वा क्रियतेऽधुना । आत्मन्नारव्यमुत्सृज्य हन्त बाह्येन मुह्यसि ॥ ८० ॥
अन्वयार्थः - ( हे आत्मन्) हे आत्मा (त्वया) तूने (किंनु कर्तुं आरब्धं क्या तो करनेके लिये आरंभ किया था और (अघुना किं नु क्रियते ) अब तू क्या कर रहा है ? ( हन्त ) बड़े खेदकी बात है कि (आरब्धं उत्सृज्य ) अपने प्रारंभ किये हुएको छोड़कर (बान) बाह्य पदार्थोंसे (मुह्यति) मोहको प्राप्त हो रहा है ॥
अर्थात् — कर्तव्यको छोड़कर अकृत्य में प्रवृत्ति करना अनुचित है ॥ ८० ॥
इदमिष्टमनिष्टं वेत्यात्मन्संकल्पयन्मुधा | किं नु मोमुह्य से बाह्ये स्वस्वान्तं स्ववशीकुरु ॥८१॥ अन्वयार्थः– (हे आत्मन् ) हे आत्मा ( इदं इष्टं वा अनिष्टं) यह इष्ट है अथवा अनिष्ट है (इति) इस प्रकार ( मुधा ) वृथा ( संकल्पयन् ) संकल्प करता हुआ (त्वं) तू (बाह्य) बाह्य पदा थमें (किंनु ) क्यों (मोमुह्यसे) मुग्ध हो रहा है इस लिये (स्वस्वा