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क्षत्रचूड़ामणिः ।
२१५ (बीतपुण्यानां) जिनका पुण्यकर्म क्षीण हो गया है उन पुरुषोंके ( विपदः ) विपत्तियां (पृष्टतः) पीछे ( तिष्ठन्ति एव ) लगी ही रहती हैं ॥ ३४ ॥ मत्प्तरी कौरवेणायं भर्तनादयुयुत्सत । मत्सराणां हि नोदेति वस्तुयाथात्म्यचिन्तनम् ॥३५॥ _अन्वयार्थः—फिर (अयं मत्सरी) मत्सर भाव रखने वाले इस काष्ठाङ्गारने ( भर्त्सनात् ) ताड़न और अपमानसे (कौरवेण सह) कुरुवंशी जीवंधर स्वामीके साथ (अयुयुत्सत) युद्ध करनेकी इच्छा की। अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे (मत्सराणां) मत्सरी पुरुषोंके ( वस्तुयथात्म्यचिन्तनम् ) पदार्थके यथार्थ स्वरूपका विचार करना (न उदेति ) नहीं होता है ॥ ३५ ॥ केचित्कौरवतः केचिदैरितोऽप्यभवनृपाः। सुजनेतरलोकोऽयमधुना न हि जायते ॥ ३६॥ _अन्वयार्थः-(युद्धे) उस युद्धमें (केचित् नृपाः) कुछ राजा तो (कौरवतः) जीवंधर स्वामीकी ओर ( अभवन् ) हो गये और (केचित् ) कुछ (बैरितः अपि ) शत्रुके पक्षमें ( अभवन् ) हो गये । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (सुजनेतरलोकः ) सज्जन
और दुर्जनका पक्ष करनेवाला (अयं) यह संसार (अधुना) अभी ही (न जायते) नहीं होगया किन्तु हमेशासे चला आ रहा है ॥३६॥ कौरवोऽप्पाहवेऽरातिं लोकान्तरमजीगमत् । दुर्बला हि बलिष्ठेन बाध्यन्ते हन्त संस्मृतौ ॥३७॥
अन्वयार्थः-(कौरवः अपि) कुरुवंशी जीवंधर स्वामीने भी