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क्षत्रचूड़ामणिः । (टैक्स ) से रहित ( अकरोत् ) करदी । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( महिषैः ) भैसाओंसे (क्षुभित तोयं ) गदला किया हुआ जल ( सद्यः ) शीघ्र ही (न प्रसीदति ) निर्मल नहीं होता है ॥१७॥ पनवक्त्रादिमित्रेभ्यो यथायोग्यमदास्पदम् । अविशेषपरिज्ञाने न हि लोकोऽनुरज्यते ॥ ५८॥ ___अन्वयार्थः-और इन जीवंधर स्वामीने ( पद्मवक्त्रादि मित्रेभ्यः ) पद्मास्यादिक मित्रोंके लिये ( यथायोग्यं पदं ) यथा योग्य पद ( अमात् ) दिये । अत्र नीतिः ! ( हि ) निश्चयसे ( अविशेषपरिज्ञाने ) साधारण सामान्य सत्कारसे ( लोकः ) लोग ( न अनुरज्यते ) अनुरजायमान नहीं होते हैं । अर्थात्जीवंधर स्वामीने मित्रोंपर कौन किस पदके योग्य है ऐसा परिज्ञान करके उनको यथायोग्य पद दि । ॥ ५८ ॥ पद्मादयोऽपि तद्देव्यः समागत्य तदाज्ञया। तं समीक्ष्य क्षणे चासन्क्षीणाखिलमनोव्यथाः ५९॥ ___अन्वयार्थः- ( तदाज्ञया पद्मादयोऽपि देव्यः ) उस समय महाराजकी अज्ञासे पद्धा आदिक उनको स्त्रिये ( समागत्य) आकर ( तं समीक्ष्य) उन जीवंधर स्वामीको देखकर (क्षणे च ) उस समय (क्षणाखिलमनोव्यथाः ) सम्पूर्ण मनकी पीडासे रहित ( आसन् ) हुई ॥ ५९ ॥ चिरस्थाय्यपि नष्टं स्याद्विरुहार्थे हि वीक्षिते । सन्निधावपि दीपस्य किं तमिस्र गुहामुखम् ॥३०॥