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क्षत्रचूड़ामणिः ।
एकादशो लम्बः
- -- अथ राज्यश्रिया लब्ध्वा लक्ष्मणां मुमुदे कृती। चिरकाङ्कितलाभे हि तृप्तिः स्यादतिशायिनी ॥१॥ ___अन्वयार्थः--(अथ) इसके अनंतर (कृती) विद्वान् महाराजा जीवंधर ( राज्यश्रिया सह ) राज्यलक्ष्मीके साथ (लक्ष्मणां लब्ध्वा) लक्ष्मणाको प्राप्त करके (मुमुदे) अत्यन्त प्रसन्न हुए । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( चिरकाशित लाभे ) चिरकालकी चाही हुई वस्तु की प्राप्ति होनेपर ही ( अतिशायिनी) बड़ी भारी (तृप्तिः) प्रसन्नता ( स्यात् ) होती है ॥ १॥ लब्ध्वा राज्यमयं राजा रेजे सर्वगुणैरपि । काचो हि याति वैगुण्यं गुण्यतां हारगो माणः ॥२॥
अन्वयार्थः-( अयं राजा ) यह महारान जीवंधर (राज्यं लब्ध्वा ) राज्यको प्राप्त करके ( सर्वगुणैः अपि) और सब गुणोंसे भी (रेजे) शोभायमान हुए । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( हारगः काचः ) हारलतामें पिरोया हुआ कांच (वैगुण्यं याति) बुरा प्रतीत होता है (तु) और उस स्थान पर पिरोई हुई (मणिः) मणि (गुण्यतां याति) बहुत ही शोभायमानपनेको प्राप्त होती है। ___ अर्थात्--सर्व गुण सम्पन्न जीवंधर कुमारको राज्यकी प्राप्ति सुवर्णमें सुगंधकी तरह हुई ॥२॥