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पञ्चमो लम्बः ।
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कामरूपविधौ गाने विषहाने च शक्तिमत् । यक्षेन्द्रः स्वामिने पश्चान्मन्त्रत्रयमुपादिशत् ॥ ६७ ॥ (अन्वयार्थः - ( पश्चात् ) इसके अनंतर ( यक्षेन्द्रः) उस क्षे ने (स्वामिने) जीवंधर स्वामीको ( कामरूप विधौ ) इच्छा के अनुसार रूप बनाने में, (गाने) गान विद्या में (च) और (विष हाने ) सर्पका विष दूर करने में (शक्तिमत) समर्थ ऐसे ( मन्त्रत्रयं ) तीन मंत्रोंका ( उपादिशत् ) उपदेश दिया || २७ ॥ एकहायनमात्रेण धुरि राज्ञां प्रवेक्ष्यसि । मोक्षस्यैव पवित्र त्वं पश्चादिति च सोऽब्रवीत् ||२८|| अन्वयार्थ :- हे पवित्र ! ) हे पवित्र ( त्वं ) तुम (एकहा यन मात्रेण) एक वर्ष में (राज्ञां धुरि ) राजाओं के अगाड़ी ( प्रवेश्यसि ) प्रवेश करोगे । (पश्चात् ) फिर कुछ समय के अनंतर (मोक्षस्य एव ) मोक्षके ही अधिकारी होगे (इति) इस प्रकार (सः) उस यक्षेन्द्र ने ( अब्रवीत् ) कहा ॥ २८ ॥ तथा संभाव्यमानस्य स्वामिनस्तेन सन्ततम् । देशान्तरदिदृक्षाभूद्भाव्यधीनं हि मानसम् ॥ २२ ॥
अन्वयार्थः - (तथा) सर्व प्रकार से ( तेन) उस यक्षेन्द्रसे ( सन्ततम् ) निरंतर ( संभाव्यमानस्य) पूज्यवान् (स्वाभिनः) जीवंधर स्वामीको (देशांतर दिक्षा) अन्य देशों के देखने की इच्छा (अभूत् ) हुई अत्रनीति: ! (हि) निश्चय से ( भाव्यधीनं) होनहार के अनुपार ही (मानसं भवति) मनके विचार हो जाते हैं ॥ २९ ॥ मनीषितं हितान्वेषी ज्ञात्वा तस्य मनीषिणः । अनुमेने स देवोऽपि त्रिकालज्ञा हि निर्जराः ॥ ३०॥