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क्षत्र चूड़ामणिः ।
१९७ नहीं हुआ । अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से ( अपदानं) स्वयं जिसको न कर सके ऐसा उत्तम कार्य दूसरेसे कर देने पर ( अशक्तानां ) अशक्त पुरुषोंको (अद्भुताय) आश्चर्यके लिये (जायते) होता है ॥ ६९ ॥ स्वामिनोऽयं स्ववृत्तांतं सकातर्य समभ्यधात् । संनिधाने समर्थानां वराको हि परो जनः ॥ ६६ ॥ अन्वयार्थः - ( अयं ) जिसका बाण खाली गया उस राजकुमारने (स्वामिनः) जीवंधर स्वामी से ( सकातर्थं ) दीनतापूर्वक डरते हुए (स्ववृत्तान्तं ) अपना वृत्तान्त ( समभ्यधात् ) कहा । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( समर्थानां ) समर्थ बड़े पुरुषों के ( संनिधाने) अगाड़ी (परो जनः ) असमर्थ दूसरा मनुष्य ( बराक:भवति ) तुच्छ दीन हो जाता है ॥ ६६ ॥ कर्तव्यं वा न वा प्रोक्तं मया कार्मुककोविद । कर्णकटुपि महाक्यमाकर्णयितुमर्हसि ॥ ६७ ॥
अन्वयार्थः -- ( हे कार्मुककोविद ! ) हे धनुष विद्या में प्रवीण ! (मया प्रोक्तं) मेरे से कहा हुआ ( कर्तव्यं ) करने योग्य है ( वा न वा ) अथवा नहीं (किन्तु कर्णकटु अपि) किन्तु कानों को अप्रिय भी (मवाक्यं) मेरे वचन ( आकर्णयितुं अर्हसि ) आप सुने ॥ ६७ ॥
एतन्मध्यमदेशस्था हेमाभा स्यादियं पुरी । क्षत्रियो दृढमित्रः स्यात्तत्प्रिया नलिनाह्वया ||३८|| अन्वयार्थः – ( एतन्मध्यमदेशस्था ) इस मध्य देशमें स्थित ( इयं ) यह ( हेमाभा ) हेमाभा नामकी ( पुरी ) पुरी ( स्यात् )