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क्षत्रचूड़ामणिः । . . १९७ 'बुभुक्षितं तमालक्ष्य भोजयामास सा सती।.. अन्तस्तत्त्वस्य याथात्म्ये न हि वेषो नियामकः।।२२।।
अन्वयार्थः-( सा सती) उस श्रेष्ठ कन्याने (तं बुभुक्षितं आलक्ष्य) उस बूढ़ेको भूखा समझकर (मोजयाभास) भोजन कराया। अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (वेषः) बाहरी वेश (अन्तस्तत्त्वस्य) भीतरी अन्तर स्वरूपकी (याथात्म्ये) यथार्थताका ( नियामकः न भवति ) जतलानेवाला नहीं होता है ॥ २१ ॥ भुक्त्वाथ वार्धकेनेव सुष्वाप तलिमे कृती। योग्यकालप्रतीक्षा हि प्रेक्षापूर्वविधायिनः ॥ २२॥ __अन्वयार्थः--(अथ) इसके अनंतर (कती) वह बुद्धिमान बूढ़ा (भुक्त्वा ) भोजन करके (वार्धकेन एव) बुढ़ापे की थकावटसे ही मानो (तलमे) किसी शय्या पर (सुष्वाप) आराम करनेके लिये पड़ गया । अत्र नीतिः ! हि) निश्चयसे (प्रेक्षापूर्वविधायिनः) विचारपूर्वक कार्य करनेवाले मनुष्य ( योग्यकालप्रतीक्षा भवंति ) योग्य उत्तम समयकी बाट जोहा करते हैं ॥ २२ ॥ भुवनमोहनं गानमगासीदथ गानवित् । परस्परातिशायी हि मोहः पश्चेन्द्रियोद्भवः ॥२३॥
अन्वयार्थः-(अथ) इसके अनंतर ( गानवित् ) गान विद्याके जाननेवाले उस बुड्ढ़ेने (भुवनमोहनं) जगतको मोहित करनेवाला ( गानं ) गाना ( अगासीत् ) गाया। अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (पंचेन्द्रियोद्भवः ) पांचों इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ ( मोहः ) मोह ( विषयों में प्रीति ) ( परस्परातिशायी) एक दूसरेसे अधिकाधिक होती है ॥ २३ ॥