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क्षत्रचूड़ामणिः ।
चातुरङ्गबलं पश्चाच्चतुरोऽयं न्यशामयत् । आलोच्यात्मारिकृत्यानां प्राबल्यं हि मतो विधिः॥ १८
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अन्वयार्थः - (पश्चात् ) इसके अनंतर (चतुरः) चतुर (अयं राजा ) इस राजाने ( चातुरङ्गबलं ) अपनी चतुरङ्गी बड़ी भारी सेना (न्यशामयत् ) चलने के लिये तैयार की। अत्र नीति: ! (हि) निश्रयसे (आत्मा रिकृत्यानां ) अपनी और शत्रुके कार्योंकी (प्राबल्यं) प्रबलताको (आलोच्य) विचार करके ही (विधिः मतः ) किसी का - मका करना निश्चित किया जाता है ॥ १८॥ प्रतस्थे चाथ सल्लने पात्रदानादिपूर्वकम् | दानपूजातपःशीलशालि किं न सिध्यति ॥ १९॥
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अन्वयार्थः- ( अथ ) इसके अंनंतर ( सलग्ने ) शुभलनमें ( पात्रदानादि पूर्वकम् ) पात्रदानादि पुण्य कर्म पूर्वक जीवंधर सहित गोविंदरान (प्रतस्थे च वहां से चलदिया । अत्र नीतिः ! ( ही ) निश्चयसे । दानपुनातपः शीलशालिनां ) दान, पूजा, तप और शीलादिकको पालन करने वाले मनुष्योंक ( किं ) क्या (नसिध्यति ) सिद्ध नहीं होता है ॥
अर्थात- उनके सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं ॥ १९ ॥ अथ राजपुरीं प्राप्य राजा कैश्वित्रयाणकैः । निकषा तत्पुरीं कापि निषसाद महाबलः ॥ २० ॥
अन्वयार्थः — ( अथ ) इसके अनंतर ( महाबल: ) बड़ी भारी सेनाका स्वामी ( राजा ) यह गोविन्दराजा ( कैश्चित् प्रयाकैः ) कई एक पड़ाव डालेनके अनंतर ( राजपुरीं प्राप्य ) राज