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क्षत्रचूड़ामणिः । हो ( तद्वती) गेंदसे खेलती हुई ( सूत्यां) उस जवान कन्याको ( वीक्ष्य ) देखकर ( अमुह्यत ) उस पर मोहित हो गये । अत्र नीतिः ( हि ) निश्चयसे (वशिनां) जितेन्द्रिय पुरुषोंके (मनोवृत्तिः) मनके भाव ( स्थाने एव ) युक्त स्थानमें ही ( जायते) प्रवृत्त होते हैं । ६६ ॥ तन्मोहादयमध्यास्त तत्सौधाग्रवितर्दिकाम् । अञ्जसा कृतपुण्यानां न हि वाञ्छापि वञ्चिता ॥६॥
__ अन्वयार्थः-(अयं) यह जीवंधर कुमार ( तन्मोहात् ) उस कन्याके प्रेमसे (तत्सौधाग्रवितर्दिकाम् ) उसके मकानके अगाड़ीकी चौकी पर ( अध्यास्त ) बैठ गये । अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे ( अञ्जसा कृत पुण्यानां ) किया है अच्छी तरहसे पुण्य जिन्होंने ऐसे पुरुषोंकी (व ञ्छा अपि) इच्छा भी (वञ्चिता न भवति) निष्फल नहीं होती है ॥ ६७ ॥ वैश्येशः कोऽपि तं पश्यन्व्याजहे विकसन्मुखः । चिरकाङ्कितसंप्राप्त्या प्रसीदन्ति हि देहिनः ॥६८॥
अन्वयार्थः- इसके अनन्तर (विकसन् मुखः) प्रसन्न है मुख जिसका ऐसा (कः अपि) कोई (वैश्येशः) सेठ (तं) उसको (पश्यन् ) देख कर (व्यानहे) बोला । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (देहिनः) प्राणी (चिरकाक्षितसंप्राप्त्या) बहुत कालसे चाही हुई वस्तुके मिल जाने पर (पसीदन्ति) प्रसन्न होते हैं ॥ ६८ ॥ भद्र सागरदत्तोऽहं भवत्येष ममालयः। विमला कमलोद्भूता सुता सूत्या च साभवत् ॥६९॥