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अष्टमो लम्बः ।
कथमाथा इति ज्यायानन्वयुक्त मिथोऽनुजम् । वञ्चनं चावमानं च न हि प्राज्ञैः प्रकाश्यते ॥ १२ ॥ अन्वयार्थः -- ( ज्यायान् ) बड़े भाई जीवंधर कुमारने
" (त्वं) तुम यहां (कथं )
( अनुजम् ) छोटे भाई से (मिथः) एकांत में कैसे ( आयाः) आये" (इति) इस प्रकार (अन्वयुङ्ग) पूछा । अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से ( प्राज्ञैः ) बुद्धिमान पुरुष (वञ्चनं) अपने ठगाये जानेको (च) और ( अवमानं च ) अपने निरादरको (न प्रकाश्यते) प्रकाशित नहीं करते हैं ॥ १२ ॥ सखेदं ध्यातदुःखोऽयमाचख्यौ वृत्तिमात्मनः । ध्यातेsपि हि पुरा दुःखे भृशं दुःखायते जनः ॥ १३॥ अन्वयार्थः—(ध्यातदुःखः) ध्यान किया है पहले दुःखका जिसने ऐसे (अयं ) इस नंदायने (आत्मनः) अपना ( वृत्ति) सारा वृत्तांत (सखेदं ) खेद सहित ( आचख्यौ : ) कह दिया । अत्र नीतिः । (हि) निश्चय से ( पुरा ) पहले ( दुःखे ध्याते अपि) दुःखका ध्यान करने पर भी ( जनः ) मनुष्य (भृशं) अत्यन्त ( दुःखायते) दुःखी होता है ॥ १३ ॥ पूज्यपाद तदास्माकं पापाद्भवति निर्गते । मृतकल्पोऽप्यहं म सर्वथा समकल्पयम् ॥ १४ ॥
अन्वयार्थ : - ( पूज्यपाद ! ) हे पूज्यपाद ! ( तदा) उस समय ( अस्माकं ) हमारे (पापा) पापके उदयसे (भवति) आपके (निर्गते सति) यहां चले आने पर ( मृतकल्पः अपि ) मरे हुएके समान भी (अहं) मैंने (सर्वथा मतुं ) सर्व प्रकार से मरनेके लिये ( समकल्पयत ) संकल्प कर लिया ॥ १४ ॥