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षष्ठो लम्बः । ड़ियोंमें प्रविष्ट हुये भी ( पुनः ) फिर पंचाग्नि तप करते हुए (अग्नौ च्युतान् ) अग्निमें गिरे हुए (पश्यतां पुरतः) देखनेवालोंके प्रत्यक्ष ( नश्यतः ) प्राणरहित होते हुए ( जन्तून् ) प्राणियोंको (यूयं पश्यत) तुम लोग देखो ॥ १२ ॥ पञ्चाग्निमध्यमस्थानं ततो नैवोचितं तप । जन्तुमारणहेतुत्वादाजवावकारणम् ॥ १३ ॥
अन्वयार्थः--( ततः ) इसलिये ( पंचाग्नि मध्यमस्थानं ) पंचाग्निके मध्यमें है स्थिति निप्तकी ( एतादृशं तपः ) ऐसा तप (नैव उचित ) करना उचित नहीं है क्योंकि यह तप (जंतुमा. रण हेतुत्वात) प्राणियोंके मरणका हेतु होनेसे (आनवंनवकारणम्) उल्टा संसारका ही कारण है अर्थात्-मोक्षका हेतु नहीं है ॥१३॥ तत्तपो यत्र जन्तनां संतापो नैव जातुचित् । तचारम्भानिवृतौ स्यान्न बारम्भो विहिंसनः ॥१४॥ ___अन्वयार्थः- (यत्र) जिसमें (जन्तूनां) जीवोंको (जातुचित) कभी भी (संतापः) संताप (नैव जायते ) नहीं होता है ( तत तपः ) वह ही सच्चा तप है । ( तच्च ) और वह तप ( आरम्भनिवृत्तौ स्यात् ) आरम्भकी सर्वथा निवृत्ति होने पर होता है और (हि) निश्चयसे (आरम्भः) आरम्भ (हिसात्मकक्रिया ) (विहिंसनः न स्यात् ) हिंसारहित नहीं होती है । १४ ॥ आरम्भविनिवृत्तिश्च निग्रन्थेष्वेव जायते । न हि कार्यपराचीनग्यते भुवि कारणम् ॥ १५ ॥ .. अन्ववार्थ:--और ( आरंभंविनिवृत्तिश्च ) आरंभकी निवृत्ति (त्याग) ( निग्रन्थेषु एव जायते ) निग्रंथ पदधारी मुनियोंमें ही