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पञ्चमो लम्बः। .. अन्वयार्थः- एकाकिनः) अकेले (वशिनः) जिनेन्द्रिय (तस्य) उन जीवंधर स्वामीको जातृचित्) कभी भी (उद्वेगः) उद्वेग (न अभूत) नहीं हुआ । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (विमू. ढानां) अज्ञानो मूर्ख पुरुषोंके ही ( संपदापल्लवादपि ) संपत्ति आपत्तिके लेश मात्रसे ( विक्रिया उत्पद्यते ) चित्तमें विकार उत्पन्न हो जाता है ॥ १३ ॥ ___अर्थात्-संपत्तिके लेश मात्रसे गर्व और विपत्तिके लेश मात्रसे उदासीनता व ग्लानि हो जाती है किंतु बुद्धिमानोंके चित्तमें ऐसा नहीं होता ॥ ३३ ॥ अरण्ये कचिदालोक्य वनदावेन वारितान् । दत्यमानानसौ मास्त्रातुमैच्छदेनकपान् ।। ३४ ॥ ___ अवयार्थ:-क्वचिद् अरण्ये) किसी वनमें (अप्सौमद्यः) इन पूज्य जीवंधरकुमारने ( वनदावेन वारितान् ) वनकी अग्निसे घिरे हुये और ( दह्यमानान् ) जलते हुए ( अनेकपान् ) हाथियों को (आलोक्य ) देख कर (त्रातुं ऐच्छत् ) उन्हें बचाने की ईच्छा की ॥ ३४ ॥ धर्मो नाम कृपामूलः सा तु जीवानुकम्पनम् । अशरण्यशरण्यत्वमतो धाभिकलक्षणम् ॥ ३५॥
अन्वयार्थः-(कपामूल: धर्मो नाम) दया है मूल (जड़) निसका वह धर्म है । (सा तु जीवानुकम्पनम् ) और जीवोंकी रक्षा करना ही दया कहलाती है। (अतः) इसलिये (अशरण्यशरण्यत्वं) जिप्तका कोई रक्षक नहीं है उसकी रक्षा करना ही (धार्मिक लक्षणम् ) धर्मात्मा पुरुषों का लक्षण है ॥ ३५ ॥