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प्रथमोलम्बः। · अन्वयार्थः-(हि ) निश्चयसे ( जीवानां ) मनुष्यों का (वैपश्चित्यं) पाण्डित्य (आजीवतम् ) जीवनपर्यन्त ( अनिन्दितम् ) प्रशंसनीय है और (अयं) यह (आवर्गे अपि मार्गः) मोक्षका भी मार्ग है ? ( अदः क्षीरं औधिं इव ) जैसे दूध शरीर पुट करने वाला होता हुआ भी औषधी है ॥ २७ ॥ इत्युदन्तं गुरोः श्रुत्वा शिष्यो नोत्तरमूचिवान । स्ववाचा किंतु वक्रेण शैष्योपाध्यायिका हि सा २८
अन्वयार्थ:- शिप्यः) शिष्यने (इति गुरोः उदन्तं) इस प्रकार गुरू के वृतान्तको ( श्रुत्वा ) सुनकरके (स्वः वाचा नोत्तरं उचिवान् ) उसने अपनी वाणोसे उत्तर नहीं दिया किंतु (वक्त्रेण एव) मुखकी चेष्टा से ही (उत्तरं ऊचिवान् ) उत्तर दिया । अत्र नीतिः (हि ) निश्चयसे ( सा एव शैप्योपाध्यायिका ) यही शिप्य और गुरुपना है । अर्थात शिष्ट शिय गुरुके समीर वाचालित नहीं होते हैं ॥ २८ ॥
___नं टः-छटों श्लोकसे लेकर अट्ठाईसवे श्लोक तक गुरूने जीवंधरसे अपना वृत्तान्त कहा ।। २८ ।। विज्ञातगुरुशुद्धिः स विशेषात्पिप्रियेतराम् । माणिक्यस्य हि लब्धस्य शुद्धोदो विशेषतः ॥२९॥ ___ अन्वयार्थ:-'विज्ञात गुरु शुद्धिः सः) जान ली है गुरुकी शुद्धि जिसने ऐसा यह जीवंधरकुमार (विशेषतः) और अधिक रीतिसे (पिप्रियेतराम् ) प्रसन्न हुआ । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (लब्धस्य माणिक्यस्य) प्राप्त हुई मणिके (शुद्धेः) शानादिके ऊपर