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तृतीयो लम्बः ।
अवारान्तमथ प्रापत्पारावारस्य नाविकः । चुक्षुभे नौरिहासारान्न हि वेद्यो विपत्क्षणः ॥ १३ ॥ अन्वयार्थः - ( अथ ) इसके अनन्तर ( नाविकः ) जब वह नौकाका स्वामी श्रीदत्त सेठ ( पारावारस्य ) समृद्रके (आवरान्तं ) तटके समीप ( प्रापत्) पहुँचा ( इह ) तत्र यहां आनेपर (आसारात् ) जलकी बड़ी भारी लहर से (नौः चुक्षुमे) नौका क्षोभित हो गई अर्थात् जलके प्रवाहसे डूबने लगी अत्र नीति: (हि) निश्चयसे (विपत्क्षणः) आने वाला विपत्तिका समय ( न वेद्यः ) नहीं जाना जा सकता है ॥ १३ ॥ पूर्वमेव तु नौनाशाच्छोकाब्धि पोतगा गताः । काष्ठागतस्य दुःखस्य दृष्टान्तं तद्धि नौक्षये ॥१४॥
अन्वयार्थः --- (तु - पुनः) फिर (पोतगा) नावके बैठने वाले मनुष्य ( नौः नाशात् ) नौका के नाशसे ( पूर्व एव ) पहले ही (शोकाव्धं) शोकरूपी समुद्रको प्राप्त होते भये । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( नौक्षये) नौकाके नाश होने पर ( काष्टागतस्य दुःखस्य ) म. नो वह मर्याद रहित दुखका (तत् दृष्टान्तं) वह दृष्टान्त था ॥ १४ ॥ सायान्त्रिकस्तु तत्वज्ञो विकारं नैव जग्मिवान् । अज्ञात्प्राज्ञस्य को भेदो हेतोश्चेद्विकृतिर्द्वयोः ॥१५॥
अन्वयार्थ : --- (तु ) परन्तु ( तत्वज्ञः ) पदार्थ के स्वरूपको जाननेवाला ( सायान्त्रिकः ) नौकाका स्वामी श्रीदत्त ( विकारं ) विकार भावको (नैव जग्मिवान् ) प्राप्त नहीं हुवा अर्थात् घबराया नहीं । अत्र नीति: ( चेत् ) यदि ( हेतोः द्वयोः विकृतिः स्यात्) विकार ( दुःख ) के हेतुसे मूर्ख और विद्वान् इन दोनोंके अन्दर विकार
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