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तृतीयो लम्बः ।
अन्वयार्थ :- ( कुप्यानां ) चांदी सोनेसे अन्य पदार्थोंको (क्रय विक्रययोः योग्यः) खरीदने और बेचनेकी योग्यता वाला ( वैश्य सूनुकः) वैश्य पुत्र (कथं ) कैसे ( स्त्रीरत्नं लभेत ) स्त्रीरूपी रत्नको प्राप्त कर सकता है । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (शस्तं वस्तु) उत्तम पदार्थ (भूभुजां भवति) राजाओंके लिये होता है । अर्थात् तुम राजा लोगोंके उपस्थित रहते हुये यह स्त्रीरत्न इसको नहीं मिलना चाहिये ॥ ४९ ॥
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इति संधुक्षिताश्चक्रुः स्वामिना तेऽपि संयुगम् । प्रकृत्या स्यादकृत्ये धीः शिक्षायां तु किं पुनः ॥ ५० ॥
अन्वयार्थ : -- ( इति संधुक्षिता) इस प्रकार भड़काये हुये ( ते अपि) उन राजा लोगों ने भी (स्वामिना) जीवंधर स्वामीके साथ (संयुगम् चक्रुः ) संग्राम किया । अत्र नीति: ( प्रकृत्याधीः अकृत्ये स्यात् ) स्वभावसे बुद्धि खोटे कार्य में प्रवृत्त हो जाती है। (दुःशिक्षायां तु किं पुनः वक्तव्यम् ) खोटी शिक्षा मिलने पर तो फिर कहना ही क्या है ॥१०॥
पराजेषत भूपास्ते धन्विनां चक्रवर्तिनः । अलं काकसहस्रेभ्य एकैव हि दृषद्भवेत् ॥ ५१ ॥
अन्वयार्थः – (ते भूपाः) वे राजा लोग (धन्विनां चक्रवर्तिनः ) धनुष धारियोंके चक्रवर्ती जीवंधर से (पराजेषत) हार गये । अत्र नीति: (हि) निश्चयसे (काक सहस्रेभ्यः) हजार कौऔंके उड़ानेके लिये (एका एव) एक ही ( दृषद् ) पत्थर (अलं भवेत् ) समर्थ होता है ॥५९॥