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तृतीयो लम्बः । ___ अन्वयार्थ:-( तावता ) उसी समय घोषणाके सुनते ही (धरणी भुजः) राना लोग (बीणा मण्डपं आसेदुः) वीणा मण्डपमें आ पहुंचे अत्रनीतिः ? (अत्र जगत्यां) इस संसारमें (के नाम) कौन पुरुष (स्त्री रागेण न प्रतारितः) स्त्रीके प्रेमसे नहीं ठगाये गये हैं। अर्थात् स्त्रीका प्रेम सबको अपने आधीन कर लेता है ॥४॥ कन्यायाः परिवादिन्यां पराजेषत पार्थिवाः । अपुष्कला हि विद्या स्यादवकफला कचित् ॥४४॥ ___ अन्वयार्थ:-(पार्थिवाः) राजा लोग (कन्यायाः परिवादिन्यां) कन्याकी परिवादिनी नामकी वीणा बजाने पर (पराजेषत) हार गये । अर्थात् उससे बढकर कोई वीणा न बना सका । अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे (अपुष्कला विद्या) अपूर्ण विद्या (क्वचित) कहींपर (अवज्ञा एक फला स्यात) तिरस्कार ही है मुख्य फल निसका ऐसी होती है । अर्थात् तिरस्कारके सिवाय उसका दूसरा फल नहीं होता ॥ ४४ ॥ जीवधर कुमारस्तु घोषवत्यां जिगाय ताम् । अनवधा हि विद्या स्थाल्लोकदयफलावहा ॥४५॥
अन्वयार्थः-(तु जीवंधर कुमारः) किन्तु जीवंधर कुमारने (तां) उस कन्याको (घोषवत्यां) अपनी घोषवती नामकी वीणा बनाने पर (निगाय) जीत लिया । अत्रनीति: (हि ) निश्चयसे (अनवद्या विद्या) निर्दोष पूर्ण विद्या (लोकहयफलावहास्यात् ) इस लोक और परलोकमें उत्तम फल देनेवाली होती है ॥ १५ ॥ पराजयं जयाच्छ्लाघ्यं मत्त्वा सापि तमासदत् । अन्तिकं कृतपुण्यानां श्रीरन्विष्य हि गच्छति ॥४६॥