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क्षत्रचूड़ामणिः । अस्तु पैतृकमस्तोकं वस्तु किं तेन वस्तुना। रोचते न हि शौण्डाय परपिण्डादिदीनता ॥४॥
अन्वयार्थः-(पैतृकं) पिता समंधी अर्थात् पूर्वजोंका उपाजन किया हुआ (अस्तोकं वस्तु अस्तु) बहुतसा धन रहवे (तेन वस्तुना किं) उस धनसे क्या ? अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (शौण्डाय) उद्योगी पुरुषोंके लिये (परिपिण्डादि दीनता) दूसरोंके कमाये हुए अन्नादिक पर निर्वाह करना (न रोचते) रुचिकर नहीं होता है ॥ ४ ॥ स्वापतेयमनायं चेत्सव्ययं व्येति भूर्यति। . सर्वदा भुज्यमानो हि पर्वतोऽपि परिक्षयी ॥५॥ ___ अन्वयार्थ:--- स्वापतेयं ) स्वस्वामिक धन ( चेत् ) यदि (अनायं) आमदनीसे रहित और (सव्ययं) व्यय करके सहित है तो (भर्यपि) बहुत भी (व्येति) समाप्त हो जाता है । अत्र नीतिः (हि) निश्वयसे (सर्वदा भुज्यमानः ) हमेशा भोगमें आने वाला अर्थात् जिसके पत्थर वगेरेह काम में आते हों ऐसा (पर्वतः अपि) पर्वत भी एक दिन (परिक्षयो) नाशको प्राप्त हो जाता है ॥ ५ ॥ दारिद्रयादपरं नास्ति जन्तूनामप्यरुन्तुदम् । अत्यक्तं मरणं प्राणः प्राणिनां हि दरिद्रता ॥६॥ ___अन्वयार्थः- ( जन्तूनां ) मनुष्योंको ( दारिद्रयात् अपरं ) दरिद्रतासे बढ़कर दूसरा कोई ( अरुन्तुदतम् ) दुःखको देनेवाला (नास्ति) नहीं है । अत्रनोतिः (हि) निश्चयसे (पाणिनां दरिद्रता) जीवोंके दरिद्रता (पाणः अत्यक्तं) प्राणोंके निकलनेके विना (मरणं) मरणके समान है ॥ ६॥