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क्षत्रचूड़ामणिः। ____ अन्वयार्थः-( इति ) इस प्रकार (तं ) उस जीवंधरको (आशास्य) उपदेश रूप आशीर्वाद देकर (च) और (आश्वास्य) विश्वास दिलाकर (कच्छू) खेद है ! (सः) वह जीवंधरके गुरू आर्यनन्दी आचार्य (तपसे) तप करनेके लिये ( गतः ) चले गये। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( अत्रलोके ) इस संसारमें (प्राणप्रयाण वेलायां ) प्राणोंके निकलनेके समय धर्मको छोड़कर दूसरा कोई (प्रतिक्रिया न उपाय नहीं है ।। ५७ ॥ प्रवज्याथ तपः शक्तया नित्यमानन्दमबजत् । निष्प्रत्यूहा हि सामग्री नियतं कार्यकारिणी॥५८॥ ___अन्वयार्थः-( अथ ) तदनन्तर (प्रव्रज्य ) फिर दीक्षा लेकर उन गुरूने ( तपः शक्त्या ) तपश्चरण की सामर्थ्य से (नित्यं आनन्द) शाश्वत आनन्द रूपी मोक्षको ( अवनत् ) प्राप्त किया । अत्र नीतिः ( हि ) निश्चयसे ( निष्यप्रत्यूहा) निर्विन (सामग्री) सामग्री (नियतं) नियमसे (कार्यकारिणी) कार्यको सिद्ध करनेवाली होती है ॥ ५८ ॥ तपोवनं गुरौ प्राप्त शुचं प्रापत्स कौरवः । गर्भाधानक्रियामात्रन्यूनौ हि पितरौ गुरुः ॥ ५९॥
अन्वयार्थः-(गुरौ तपोवनं प्राप्ते) गुरूके तपोवनमें चले जानेपर (कौरवः) कुरुवंशी उस जीवंधरने (शुचंपापत् ) अत्यन्त शोक किया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (गर्भाधान क्रियान्यूनौ) गर्भ धारण क्रियासे रहित [गुरुः] गुरू (पितरौ) माता पिताके समान हैं ॥ ५९ ॥