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द्वितीयो लम्बः । निश्चयसे (पदार्थानां) पदार्थोके विनाशकी तरह उनका [भावनं] पैदा करना (न शक्यं) शक्य नहीं है ।
अर्थात्-जिस प्रकार किसी पदार्थ का नाश कर देना बिलकुल सरल है उसी प्रकार उसका बनाना अत्यन्त दुःसाध्य है ॥४९।। सजनास्तु सतां पूर्व समावाः प्रयत्नतः । किं लोके लोष्टवत्प्राप्यं श्लाघ्यं रत्नमयत्नतः ॥५०॥ ____ अन्वयार्थः--(तु) और (सतां) सज्जन पुरुषोंको (प्रयत्नतः) प्रयत्नसे (पूर्व) पहले (सज्जनाः सभावाः ) सज्जनोंको पूजना चाहिये । लोके) लोकमें (किं) क्या (लोष्टवत) ढेलेके समान (श्लाध्यं रत्न) प्रशंसनीय रत्न (अयत्नतः) विना प्रयत्न के (प्राप्यं) मिल सकता है ? अर्थात् नहीं मिल सकता ॥१०॥ जाग्रत्त्वं सोमनस्यं च कुर्यात्सद्वागलं परैः। अजलाशयसंभूतममृतं हि सतां वचः ॥ ५१ ॥
__ अन्वयार्थः---सद्वाक्) सजन पुरुषोंका वचन (जागृत्व) जागृति (च) और (सौमनस्य) उत्तम सहृदयताको (कुर्यात् ) करता है (परैः अलं) बहुत कहनेसे क्या ? [हि निश्चयसे ( सतां वचः ) सज्जन पुरुषोंका वचन (अजलाशय सम्भूतं) अनलाशयसे उत्पन्न हुआ (अमृत) अमृत है। __अर्थात्-अमृत अनलाशयरूप जड़ समुद्रसे पैदा होता है
और वचनामृत अनलाशय (सचेतन) सत्पुरुषोंके मुखसे उत्पन्न होता है अतएव अमृतकी अपेक्षा सज्जन पुरुषोंका वचनामृत सर्वोत्कृष्ट है ॥११॥