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प्रथमोलम्बः । ( आदधानः ) उठाकर ( जीव ) जीव (इति आशिषम् ) ऐसी आशीर्वाद ( आकर्ण्य ) सुनकर ( तनाम समकल्पयत् ) जीवक वा जीवंधर उसका नाम रक्खा ॥ ९७ ॥ अमृतं सूनुमज्ञानात्संस्थितं कथमभ्यधाः । इति क्रुध्यन्स्वभार्यायै सानन्दोऽयमदात्लुतम् ॥१८॥ ___अन्वयार्थः- इसके पश्चत् उसने घर जाकर ( स्वभार्यायै ) अपनी स्त्रीके लिये ( अमृतं ) नहीं मरे हुए ( सूनुं ) बालकको ( अज्ञानात् ) अज्ञानसे तूने ( कथं ) कैसे ( संस्थितं ) मरा हुआ ( अभ्यधाः ) कह दिया ( इति क्रुध्यन् ) ऐसा कह कर क्रोव करता हुआ (सानन्दः अयं) आनन्द सहित इसने (सुतं अदात्) पुत्रको उसे सोंप दिया ॥ ९८ ॥ अभ्यनन्दीत्सुनन्दापि नन्दनस्यावलोकनात् । प्राणवपीतये पुत्रा मृतात्पन्नास्तु किं पुनः ॥ ९९ ॥
अन्वयार्थ:-- ( सुनन्दा अपि ) वैश्यकी स्त्री सुनन्दा भी ( नन्दनस्य ) पुत्रको ( अवलोकनात् ) देखनेसे ( अभ्यनन्दीत ) अत्यन्त आनन्दित होती भई । अत्र नीतिः (ही) निश्चयसे (पुत्रः) पुत्र ( प्राणवत् )प्राणोंकी तरह ( प्रीतये भवन्ति ) प्रीतिके लिये होते हैं (तु) और जो ( मृतोत्पन्न: किं पुनः वक्तव्यः ) पुत्र मर कर फिर जन्म धारण करते हैं ! उनका तो कहना ही क्या है ॥ ९९ ॥ देवता जननीमस्य बन्धुवेश्मपराङ्मुखीम् । दण्डकारण्यमध्स्थमनैषीत्तापसाश्रमम् ॥ १० ॥