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प्रथमोलम्बः ।
अवर्तिष्ट यथे स पाषण्डितपसा पुनः । चित्रं जैनी तपस्या हि स्वैराचारविरोधिनी ।। १५ ।।
युग्मम्
अन्वयार्थ : - (पुनः) इसके
पश्चात् ( स ) वह (स्वैराचारी पातकी) स्वेच्छाचारी पापी पुरुष ( गुल्मेनांतर्हितः ) छोटे वृक्षसे छिपे हुये (विष्करान् गृह्णन् ) चिड़ियों को पकडनेवाले (नाफल इव) व्याधके सदृश (तपसाच्छादितः तिष्ठन् ) झूठे तपसे आच्छादित होता हुआ अर्थात् तपके बहाने से ( पाषण्ड तपसा ) पाखण्ड तपके द्वारा (यथेष्टं ) इच्छानुसार इधर उधर (अवर्तिष्ट) घूमता भया । अत्रनीतिः (चित्र) आश्चर्य है ? (हि) निश्चय से (जैनी तपस्या) जैन धर्मके अनुकूल तपश्चरण (स्वैराचारविरोधनी) स्वच्छंद आचरणका विरोधी है ॥ १५ ॥
अथ भिक्षुर्बुभुक्षुः सन् गन्धोत्कटगृहं गतः । उपतापरुजोऽप्येष धार्मिकाणां भिषक्तमः ॥ १६ ॥
अन्वयार्थ : ( अथ ) तदनंतर (भिक्षु ) भिक्षुक ( बुभुक्षुः सन् ) भूख से पीड़ित होता हुआ (गंधोलट गृहं गतः) गंधोत्कट सेठके घर गया । तो भी (एषः) यह तापसी ( उपताप रुजः अपि) रोगसे पीड़ित होता हुआ भी (धार्मिकाणां ) धर्मात्मा पुरुषोंका (भिषक्तमः) उत्तम वैद्यथा ॥ १६ ॥ धार्मिकाणां शरण्यं हि धार्मिका एव नापरे । अहेर्न कुलवत्तेषां प्रकृत्यान्ये हि विद्विषः ॥ १७ ॥
अन्वयार्थः - (हि) निश्चय से (धार्मिकाणां ) धार्मिक पुरुषोंके (शरण्यं) रक्षक (धार्मिकाएव) धार्मिक पुरुष ही होते हैं (अपरे न )