________________
२५
क्षत्रचूड़ामणिः । अन्वयार्थः- ( देवता ) वह देवी ( बन्धुवेश्मपराङ्मुखीं) बन्धुओंके घर जानेसे विमुख ( अस्य जननीं) इस जीवंघरकी माताको (दण्डकारण्यमध्यस्थ) दण्डक वनके मध्यमें स्थित (तापसाश्रमम्) तपस्वियोंके आश्रममें (अनैषीत) पंहुचाती भई ॥१०॥ कृत्वा च तां तपस्यन्ती सतोषा सा मिषादगात् । समीहितार्थसंसिद्धौ मनः कस्य न तुष्यति ॥१०॥ ____ अन्वयार्थः-इसके पश्चात् (तां) उस रानीको (तपस्यन्ती) तपश्चरण क्रियामें लगा करके (सतोषासा) संतुष्ट वह देवी किसी (मिषात् ) बहानेसे (अगातू) चलोगई। अत्र नीतिः (समीहितार्थस सिहौ) मनोमिलषत अर्थके सिद्ध हो जाने पर ( कस्य मनः) किसका मन ( न तुष्यति ) संतुष्ट नहीं होता है ? किन्तु (संतुष्य त्येव) संतुष्ट ही होता है ॥ १०१ ॥ अवात्सीद्राजपत्नी च वत्सं निजमनोगृहे। सिनपादाम्बुजं चैव ध्यायन्ती हन्त तापसी ॥१०॥ ___अन्वयार्थः-(हन्त) खेदक़ी बात है ? (तापसी) तपस्विनी (राजपत्नो) रानाकी स्त्री विनया पट्टरानी (निन पादाम्बुज) निनेन्द्रके चरण कमलोंको (ध्यायन्ती) ध्यान करती हुई (निजमनोगृहे)
आने मनरूपी घरमें (वत्सं एव) जीवंधर पुत्रको ही (अवात्सीत) निवास कराती भई ॥ १०२॥ अनल्पतूलतल्पस्थसवृन्तप्रसवादपि। निर्भरं हन्त सीदन्त्यै दर्भशय्याप्यरोचत ॥ १०३ ॥
अन्वयार्थः--और (हन्त) बड़े खेदकी बात है ? (अनल्प