________________
क्षत्रचूड़ामणिः । करके (अपि) भी (येन) जिस कारणसे (त्वं) तू (निवारणे) निवारण करनेमें (निपुणः) समर्थ (नासि) नहीं होता है (हि) निश्चयसे (तत् दुष्कर्म वैभवम् ) यह बुरे कर्मोका ही प्रभाव है।
अर्थात् दुर्व्यसनोंका फल बुरा होता है ऐसा समझने पर भी आत्मा उनको छोड़ने में आस्.मर्थ दुष्कर्मके प्रभावसे ही होता है । ७६ ॥ हेये स्वयं सती बुद्धिर्थलेनाप्यसती शुभे। तहेतुकर्म तद्वन्तमात्मानमपि साधयेत् ॥ ७७॥ _ अन्वयार्थः- (बुद्धिः) बुद्धि (हेये) बुरे कार्यमें (स्वयं सती) अपने आप ही लग जाती है किन्तु (शुभेयत्नेनापि असती) अच्छे कामोंमें प्रयत्न करने पर भी प्रवृत्त नहीं होती ( तद्हेतु ) इस प्रवृत्तिसे बंधनेवाला (कर्म) कर्म ही (आत्मानं अपि) आत्माको कर भी (तद्वन्तं कुर्वन्ति) वैसा ही कर देता है ॥७७॥ कोऽहं कीदृग्गुणः कत्यः किंप्राप्यः किनिमित्तकः। इत्यूहः प्रत्यहं नो चेदस्थाने हि मातिर्भवेत् ॥ ७८ ॥ ____ अन्वयार्थः- (अहं कः) मैं कौन हूं ? ( कीडग्गुणः) मुझमें कैसे गुण हैं ? (कृत्यः) मैं कहांसे आया हूं ? (किं प्राप्यः) क्या प्राप्त कर सकता हूं ? किं निमित्तकः) और मैं किस निमित्तके लिये हूं ? (चेत् ) यदि (इति उहः) इस प्रकार विचार ( प्रत्यहं नस्यात् ) प्रतिदिन नहीं होवे तो (हि) निश्चयसे (मतिः) मनुष्योंकी बुद्धि ( अस्थाने भवेत् ) अयुक्त स्थानमें प्रवृत्त हो जाती है ॥ ७८ ॥