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क्षत्र चूड़ामणिः ।
न्तं स्ववशी कुरु) अपने हृदयको अपने वशमें कर ॥ लोकद्वयाहितोत्पादि हन्त स्वान्तमशान्तिमत । न द्वेक्षि द्वे क्षिते मौख्यादन्यं संकल्प्य विद्विषम् ॥८२॥ अन्ययार्थः -- ( हन्त) बड़े खेदकी बात है (त्वं) तू ( लोकया हतोत्पादि ) इस लोक और परलोकमें अहित ( दुःख ) को उत्पन्न करने वाली ( अशान्तिमत् ) अशान्तिमय ( ते स्वान्तं ) अपने हृदयको (नद्वेक्षि ) द्वेष नहीं करता है किन्तु ( मौढ्यातू ) मूर्खतासे ( अन्यं) दूसरों को ( विद्विषम् संकल्प्य ) शत्रु, समझ कर (द्वेक्षि) द्वेष करता है ॥ ८२
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अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोषं प्रपश्यता ।
कः समः खलु मुक्तोऽयं युक्तः कायेन चेदपि ॥८३॥ अन्दयार्थः—–(अन्यदीयं दोषं इव) दूसरोंके दोषोंके सदृश ( आत्मीयं) अपने ( अपि ) भी ( दोषं प्रपश्यता) दोषोंको देखने वाले पुरुषके (समः) समान (अयं ) यह (क) कौन ( खलु ) निश्व - यसे (कायेन युक्तः चेदपि ) कायसे युक्त होता हुआ भी (मृक्तः ) जीवन मुक्त है ॥
अर्थात् दूसरोंके दोषोंकी तरह अपने दोषोंको देखनेवाला ही सत्पुरुष कहलाता है ॥ ८३ ॥ इत्याहपरे लोके केकी तु वियता गतः । पातयामास राज्ञीं तां तत्पुरप्रेतवेश्मनि ॥ ८४ ॥
अन्वयार्थः — उस समय (इत्याद्यूहपरे) इस प्रकारके विचार में मग्न (लोके) वहांके लोगोंके होनेपर (वियता गतः ) आकाश में हुए (केकी) यन्त्रने ( तां राज्ञीं) उस विजया रानीको (तत्पुरु
गये