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प्रथमोलम्बः ।
किं कीदृशं कियत्वेति विचारे सति दुःसहम् | अविचारितरम्यं हि रामासंपर्कजं सुखम् ॥ ७४ ॥
अन्वयार्थ : - वह सुख (किं) क्या है (कीदृशं) कैसा है ( कियत् ) कितना है (क) कहां है ( इति विचारे सति ) ऐसा विचार करने पर (दुःसहम् ) दुःसह हो जाता है अर्थात् (रामा संपर्क ) संगसे उत्पन्न (सुखं) सुख (अविचारितरम्यं) विना विचार के ही सुन्दर है || ७४ ॥ निवारिताप्यकृत्ये स्यान्निष्फला दुष्फला च धीः । कृत्ये तु नापि यत्नेन कोऽत्र हेतुर्निरूप्यताम् ॥७५ ||
अन्वयार्थ – (अकृत्ये ) बुरे काम में (निवारितापि ) निवारण किये जाने पर भी (धी:) बुद्धि (निष्फला) फल रहित (च) और (दुष्फला) बुरे फल वाली (स्यात्) प्रवृत्त होती है (तु) किन्तु ( कृत्ये अच्छे काममें ( प्रयत्नेन अपि ) प्रयत्न करने से भी (न) नहीं (प्रवर्तते) प्रवृत्त होती है। (अत्र हेतु निरूप्यतां ) कहो इसमें क्या हेतु है ?
अर्थात् बुरे कामों में आत्माकी प्रवृति विना उपदेशके भी होजाती है किन्तु सत्कार्य में सदुपदेश मिलनेपर भी वैसी प्रवृति नहीं होती ॥ निश्चित्याप्यहेतुत्वं दुश्चित्तानां निवारणे । येनात्मन्निपुणो नासि तद्धि दुष्कर्मवैभवम् ॥ ७६ ॥
अन्वयार्थः - ( हे आत्मन् ) हे आत्मा ( दुचित्तानां) बुरे मानसीक विचारोंको (अधहेतुत्वं ) पापका कारण ( निश्चित्य) निश्चय