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क्षत्रचूड़ामणिः ।
पुत्रमित्र कलत्रादौ सत्यामपिचसंपदि । आत्मीया पाय शंका हि शुङ्गः प्राणभृनांहृदि ॥२४॥
अन्वयार्थ : – (हि) निश्चयसे ( पुत्रमित्रकलत्रादौ ) पुत्र, मित्र, स्त्री, आदिक (च) और (संपदि) धनादिक सम्पत्तिके (सत्यां ) रहनेपर (अपि) भी (आत्मीयापाय शङ्का) अपने विनाशकी शङ्का ( प्राणभृतां ) प्राण धारियोंके (हृदी) हृदयमें (शकुः) कीलकी तरह दुःख देती है ॥ २४ ॥
देवि दृष्टस्त्वया स्वप्ने बालः शोकः समौलिकः । आचष्टे सोदर्यसूनु मष्टमालास्तु तद्वधूः ॥ २५ ॥
अन्वयार्थः - (देव) हे देवी ( त्वया ) तुम्हारे से ( स्वप्ने) स्वप्न (दृष्टः) देखा हुआ (समौलिकः) मुकट सहित (बालः शोकः ) बाल अशोक वृक्ष (सोदयं ) उदय सहित (सूनुं ) पुत्रको (आचष्टे ) कहता है (तु) और (अष्टमालाः) स्पप्न में देखी हुई आठ मालाऐं (तद्वधूः) पुत्रकी आठ स्त्रियें होंगीं ऐसा कथन करती हैं ॥ आर्यपुत्र ततः पूर्व दृष्ट नष्टस्य किं फलं । कङ्करेरिति चेद्देवि कथयत्येष किंचन ॥ २६ ॥
२५ ॥
अन्वयार्थः — हे आर्य पुत्र) हे आर्य पुत्र (व्रतः पूर्व) उससे पहले ( दृष्ट नष्टस्य ) देखा और फिर नष्ट होगया ऐसे ( कङ्केले : ) अशोक वृक्षका (किं) क्या (फलं) फल है (देवि) हे देवी ! (इतिचेत् ) यदि ऐसा कहती हो तो (एषः) यह भी (किंचन) कुछ (कथयति) कहता है ॥ २६॥
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