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क्षत्रचूड़ामणिः ।
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विपदः परिहाराय शोकः किं कल्पते नृणाम् । पावेक नहि पातः स्यादातपलेशशान्तये ॥३०॥
अन्वयार्थ : -- (विपदः) विपत्तिके (परिहाराय ) दूर करनेके लिये (नृणाम् ) मनुष्यों के (किं) क्या (शोकः) शोक ( कल्पते) किया जाता है (हि) निश्चय से ( आतपक्लेश शान्तये) गर्मी के क्लेशकी शान्तिके लिये (किं) क्या (पावके) अग्नि में (पात: स्य त् ) पतन होता है (अपि तु न स्यात्) किन्तु नहीं होता है ॥ ३० ॥ ततो व्यापत्प्रतीकारं धर्ममेवविनिश्चिनुः । प्रदीप देशे नास्ति तमसो गतिः ॥ ३१ ॥
अन्वयार्थ : --- ( ततः इसलिये तू निश्रयसे ( व्यापत्प्रतीकारं ) आपत्तिका उपाय ( धर्मं एव) धर्म ही (विनिश्चिनु ) निश्रय कर क्योंकि ( दीपैः दीपते) दीपकों से प्रकाशित (देशे ) देश में ( तमसः) अन्धकारका ( गतिः) गमन (नास्ति) नहीं होता ॥ ३१ ॥ इत्यादि स्वामिवाक्येन लब्धाश्वासा यथा पुरम् । पत्या साकमसौरेम दुःखचिन्ता हि तत्क्षणे ॥३२॥
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अन्वयार्थः - ( इत्यादि स्वामि वाक्येन ) इस प्रकार स्वामीके वचनों से (लब्धाश्वासा) प्राप्त हुआ है विश्वास जिसको ऐनी (असौ) यह रानी ( पत्या साकम् ) पति के साथ ( यथा पुरम् ) पहले की तरह ( रेमे रमन करने लगी अत्र नंतिः (हि) निश्चय से (तत्क्षणे ) दुःख के समय में ही (दुःख चिन्ता ) दुःखकी चिन्ता (भवति) होती है ॥ ३२ ॥