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क्षत्रचूड़ामणिः । रक्षन्त्येवात्र राजानो देवान्देहभृतोऽपि च । देवास्तु नात्मनोप्येवं राजा हि परदेवता ॥४८॥ ___अन्वयार्थः-(अत्र) इस लोकमें (राजानः) राना लोग (देवान्) देव (च) और (देहभृतोऽपि) देह धारी दोनोंकी (एव) ही (रक्षन्ति) रक्षा करते हैं। परन्तु (देवाः) देवता (आत्मनोऽपि) आपनी आत्माकी भी (न) नहीं (रक्षन्ति) रक्षा करते है (एवं) इस लिये (राना हि पर देवता) राना ही निश्चयसे उत्कृष्ट देवता है ॥ किंचात्र दैवतं हन्ति दैवतद्रोहिणं जनम् । राजा राजद्रुहां वंशं वंश्यानन्यच्च तत्क्षणे ॥४९॥
अन्वयार्थः-(किं च अत्र) और लोकमें (दैवतं) देवता (दैवत् द्रोहिणं जनम् ) अपनेसे द्रोह करनेवाले मनुष्यको (हन्ति) मारता है परन्तु (राना) राना (राजद्रुहां) राजद्रोहियोंका (वंश) कुल और (वंश्यान्) वंशके मनुष्योंको (च) और (अन्यत्) उसकी धन सम्पत्यादिकको भी (तत्क्षणे) उसी समय (हन्ति) नाश कर देता है॥४९॥ अर्थिनां जीवनोपायमपायं चाभिभाविनाम् । कुर्वन्तः खलु राजानः सेव्या हव्यवहा यथा ॥५०॥ __अन्वयार्थ:- (अर्थिनां) अर्थीजनोंके (जीवनोपाय) जीवनके उपाय (च) और (अभिभाविनाम् ) प्रजाको दुःख देनेवाले शत्रुओंका (अपायं) नाश (कुर्वन्तः) करनेवाले (राजानः) राजा लोग (खलु) निश्चयसे (हव्यवहायथा) हवनकी अग्निकी तरह (सेव्या) आदरसे सेवा करने योग्य हैं ॥१०॥ इति धर्मवचोऽप्यासीन्मर्मभितीन कर्मणः।। पित्तज्वरवतः क्षीरं तिक्तमेव हि भासते ॥५१॥