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प्रथमोलम्बः । (भ्रामयामास) घुमाता भया (अत्र नीतिः) (विधिः क्रूरतमः) पूर्वोपार्जित कर्म अत्यन्त कठोर होते हैं ॥ तात्पर्य कर्म रंक राजाक विचार नहीं करता सबको एकसा ही फल देता है ॥ ६३ ॥ वियतास्मिन्गते योढुं स मोहादुपचक्रमे । न ह्यङ्गुलिरसाहाय्या स्वयं शब्दायतेतराम् ॥६४॥ ___अन्वयार्थः-(अस्मिन् ) इस यन्त्रके (वियता गते) आकाश मार्गसे ऊपर चले जाने पर (सः) उस राजाने (मोहात् ) मोहके वशसे (योढुं) लड़ना (उपचक्रमें) प्रारम्भ किया। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (असाह्यांगुलिः स्वयं) अकेली उंगली अपने आप (नशब्दायते तराम्) शब्दको नहीं करती है अर्थात् विना निमित्तके लड़ाई नहीं होती है ॥ ६४ ॥ अथ युद्ध्वा चिरं योद्धा मुधा प्राणिवधेन किम् । इत्यूहेन विरक्तोऽभूद्त्यधीनं हि मानसम् ॥६५॥ ___ अन्वयार्थः-(अथ) तदनन्तर (योहा) योधा राजा (चिरयुवा) बहुत काल युद्ध करके (मुधा) निष्प्रयोजन (प्राणिवधेन) प्राणियोंकी हिंसासे. (किं) क्या फल है ? (इति उहेन) ऐसा विचार करके (विरक्तोऽभूत्) लड़ाईसे उदासीन हो गया अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (गत्यधीनं मानसम्) गतिके अनुकूल ही मनके भाव होते हैं । अर्थात् निसको जिस गतिमें जाना होता है उसके मृत्युके समय वैसे ही भाव हो जाते हैं ॥ ६५ विषयासङ्गन्दोषोऽयं त्वयैव विषयीकृतः । सांप्रतं वा विषप्रख्ये मुश्चात्मन्विषये स्पृहाम् ॥६६॥
अन्ययार्थः-(हे आत्मन् ) हे आत्मा (अयं) इस (विषया