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क्षत्र चूड़ामणिः ।
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सक्तिः दोषः ) विषयासक्ति दोषको ( त्वया एव) तूने ही (विषयी कृतः) प्रत्यक्ष कर लिया है अतएव (सांपतं वा ) अब तो ( विष प्रख्ये ) विषके समान ( विषये ) इन्द्रियोंके विषय में (स्टहां ) इच्छाको (मुञ्च) छोड़ दे ॥ ६६ ॥
भुक्तपूर्वमिदं सर्व त्वयात्मन्भुज्यते ततः ।
उच्छिष्टं त्यज्यतां राज्यमनन्ता वसुभृद्भवाः ॥६७॥ अन्ययार्थः - - और ( हे आत्मन् ) हे आत्मा ( इंद सर्व ) यह सब (भुक्त पूर्व) पूर्व जन्म में गे हुएको ( त्वया ) तू (भुज्यते) भोगता है ( अतः ) इस ये ( उच्छिष्टं राज्यं ) उच्छिष्ट राज्यको (त्वज्यतां ) त्याग दे अत्र नीतिः (हि) निश्च यसे (असुभृद्भवाः) जीवोंके भव (अनन्ताः) अनन्त (सन्ति) होते हैं। तात्पर्य - अनन्त् जन्मों में से बहुतसे जन्मों में इस जीवने राजसुख भोगा है इसलिये वह उच्छिष्टके समान है ॥ ६७ ॥ अवश्यं यदि नश्यन्ति स्थित्वापि विषयाश्चिरम् । स्वयं त्याज्यास्तथा हि स्यान्मुक्तिः संसृतिरन्यथा । ६८)
(अन्वयार्थ :(यदि ) अगर (विषयाः) इन्द्रियोंके विषय (चिरं ) बहुत काल तक ( स्थित्वापि ) स्थिर रहकर भी ( अवश्यं ) अवश्य ( नश्यति) नाशको प्राप्त हो जाते हैं तो (स्वयं) स्वयं ही ( त्याज्यः) छोड़ देने चाहिये ( तथाहि ) ऐसा करने पर (मुक्तिः: स्यात्) आत्मा कर्म बन्धन से मुक्त होती है (छूट जाती है) (अन्यथा ) इसके विपरीत करने से (संसृतिरेव स्यात् ) संसार ही होता है ॥ ६८ ॥