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क्षत्रचूड़ामणिः । काष्टाङ्गारने (राजानं) रानाको (हन्तुं) मारनेके लिये (बलं) सेना (प्राहैषीत् ) भेनी अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (आस्यगतं) मुखमें गया हुआ (पयः' दुग्ध (पान निष्ठीवनद्वये ) पीने और वमन क्रिया द्वयमें (शक्यं) समर्थ (भवति) होता है ॥५४॥ दौवारिकमुखादतदुपलभ्य रुषा नृपः । उदतिष्टत संग्रामें न हि तिष्ठति राजसम् ॥ ५५ ॥ _अन्वयार्थः-(नृपः) रानाने (दौवारिक मुखात्) द्वारपालके मुखसे (एतद) यह (उपलभ्य) जानकर (रुषा) क्रोधसे (संग्रामे उदतिष्ठत् ) युद्धके निमित्त चेष्टा की अत्र नीति: (हि) निश्चयसे (राजप्तम् न तिष्ठति) राजसी भाव स्थिर नहीं रहता (अपमान होने पर प्रगट हो ही जाता है) ॥१५॥ तावतार्धासानाष्टांनष्टासुं गर्भिणी प्रियाम् । दृष्टया पुनर्व्यवर्तिष्ट स्त्रीष्ववज्ञा हि दुःसहा ॥१६॥ ___अन्वयार्थः-परन्तु (तावता) उसी समय राना (अर्धासनात्) अर्धासनसे (भृष्टां) गिरि हुई अतएव (नष्टासु) गतपाणकी तरह (गर्भणी प्रियाम् ) गर्भवती अपनी प्यारी स्त्रीको (दृष्ट्वा) देखकर (पुनः) फिर (न्यवर्तिष्ट) उल्टा लौट आया अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (स्त्रीष्ववज्ञा) स्त्रियोंके विषयमें अनादर व अपमान (दुःसहा) नहीं सहा जा सकता ॥५६॥ अबोधयच्च तां पत्नीं लब्धबोधो महीपतिः। तत्त्वज्ञानं हि.जागर्ति विदुषामातिसंभवे ॥ ५७ ॥
अन्वयार्थः--- (महीपतिः) पृथवीपति रानाने (लब्धबोधः सन् ) स्वयं सचेत होकर (तां पत्नी) उप्स अपनी स्त्रीको (अबोधयत्)