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प्रथमोलम्बः । (सर्वेसम्याः तत्रसुः) सम्पूर्ण सभ्य पुरुष भय युक्त होते भये ॥४४॥ मात्माध धर्मदत्ताख्यः सचिवो वाचमूचिवान । गाढा हिस्वामिभक्तिः स्यादात्मप्राणानपेक्षणी॥४५॥ ___अन्वयार्थः- उस समय (धर्महत्तारव्यः) धर्मदत्त नामके (सचिवः) मन्त्रीने (आत्मनीं) अपने आपको नाश करनेवाली (वाचं) वाणी (उचिवान् ) कही अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (गाढास्वामिभक्तिः, अतिशय स्वामीकी भक्ति (आत्मप्राणानपेक्षणी) अपने प्राणोंकी अपेक्षा नहीं करनेवाली (स्यात्) होती है ॥४५॥ राजानः प्रणिनां प्राणास्तेषु सत्स्वेव जीवनात् । तत्तत्र सदसत्कृत्यं हि लोक एव कृतं भवेत् ॥४६॥ ___अन्वयार्थः- उसने कहा (राजानः) राजा लोग (प्राणिनां) प्राणियों के (प्राणाः) प्राण हैं (तेषु सत्सु) उनके रहने पर ही (नीवनात) प्राणियोंका जीवन होता है (तत्) इसलिये (तत्र) रानामें किया हुआ (सदसत्कृत्यं) अच्छा बुरा कर्म (लोक एवं कृतं भवेत्) प्रजाके साथ ही किया हुआ होता है ॥ ४६ ॥ एवं राजद्रुहांहन्त सर्व द्रोहित्व संभवे । राजधुगेव किं न स्यात् पञ्चपातकभाजनम् ॥४॥
अन्वयार्थः- (एवम् ) इस प्रकार (राजदुहा) राजद्रोही पुरुषोंके (सर्व द्रोहित्व संभवे) सम्पूर्ण पुरुषोंका द्रोहित्वपना संभव होने पर (हंत) खेद है (किं) क्या (रान ध्रुग् एव) राजद्रोही ही (पञ्चपातक भाननम् ) पंच महा पापोंका करनेवाला (नस्यात् ) नहीं होतो है (किन्तु स्यादेव) किन्तु अवश्य ही होता है ॥४७॥