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प्रथमोलम्बः ।
(पत्नी) विजया रानीको (बर्मुचाम्) मेघों के ( वर्त्मनि) मार्ग आका - श (जीहतरत् ) |वहार करने लगा || ३८ | तावतैव कृतघ्नाख्यां राजधाख्यां च साधयन् । स्ववियां भुवं चति काष्टाङ्गारो व्यचीचरत् ॥ ३९ ॥ अन्वयार्थ : ( तावता एव) उसी समय ही ( कृतन्नाख्यां) कृतघ्नता (च) और (राजधाख्यां) राज के वध करनेकी संज्ञाको (साधयन्) साधन करता हुआ (च) और (भुवं पृथ्वीको (स्ववि-धियां) अपने आधीन (इच्छन् ) इच्छा करता हुआ काष्टांगारः ) काष्टांगारने (इति) यह (व्यचीचरत् ) विचार किया ।। ३२ ।। जीवतान्तु पराधीनाजीवानां मरणम् वरम् । मृगेन्द्रस्य मृद्रत्वं वितीर्ण केन कानने ।। ४० ॥
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अन्वयार्थ :- (पराध नातू) पराधीन (जीवतात्तु) जीवनेसे तो (जीवानां) प्रणियोंका मरणं मरना ही (वरम् ) श्रेष्ठ है अथवा (कान) वन में / मृगेन्द्रस्य) सिंहको (मृगेन्द्रत्वं) सिंहपना बनके पशुओं का स्वामित्व ) केन) किसने ( वितीर्ण) दिया है (स्वपुरुषार्थेनैव सम्पादित) अपने पुरुषार्थसे हो उसने प्राप्त किया ॥ ४० ॥ अचीकथञ्चमन्त्रिभ्यो राजद्रोहो विधीयताम् । इति राजगुहा नित्यं देवतेनाभिधीयते ॥ ४१ ॥
अन्वयार्थ :- (राजद्रोहो विधीयताम् : राजाके साथ द्रोह करो ऐसा (राजदुहा) राजासे द्रोह करनेवाला ( दैवतेन ) देवता (नित्यं) नित्य ही मुक्तसे (अभिधीयते) कहता है (इति) इस प्रकार (सः) उसने (मन्त्रिभ्यः) मन्त्रियों से (अवीकथत् ) कहा ॥ ४१ ॥
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