________________
क्षत्रचूड़ामणिः । नाकालकृता वाञ्छा संपुष्णाति समीहितम् ।। किं पुष्पावचयः शक्यः फलकाले समागते ॥ ३६ ॥ _अन्वयार्थः-(हि) निश्चयसे ( अकाल कृता) असमयमें की हुई (वाञ्छा) इच्छा (समीहितम्) ईच्छित कार्यको (न संपुष्णाति) पूर्ण नहीं करती है जैसे (फल काले समागते) फल लगनेका समय आजाने पर (किं) क्या (पुष्पावचयः शक्यः) फूलोंका ढेर इकट्ठा कियाजा सकता है (अपि तु न शक्यः) किन्तु नहीं किया जा सकता है ॥३६॥ इत्यातों वंशरक्षार्थ केझियन्त्रम चीकरत् । आस्था सतां यशः काये न घस्थायि शरीरके ॥३७॥
__ अन्वयार्थः-इति) इस प्रकार (आर्तः) दुःखसे पीड़ित उस राजाने (वंशरक्षार्थ) वंशकी रक्षाके लिये (केकियन्त्रम्) मयूराकृति . यन्त्र ( अचीकरत् ) बनाया अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (सत्तां आस्था) सजनोंकी आस्था अर्थात् बुद्धि ( यशः काये ) यश रूपी शरीरमें ही (भवति) होती है (अस्थायि शरीरके) अनित्य पुरुषाकति शरीरमें (न भवति) नहीं होती है ॥३७॥ आक्रीडे दौहृद क्रीडामनुभोक्तुं विशांपतिः। व्यजीहरच्चयन्त्रस्थां पनी वर्त्मनि वार्मुचाम् ॥३८॥
अन्वयार्थः—(पुनः) फिर (विशांपतिः) राजा (दौहृद क्रीड़ां) दोहद कीड़ाओंका (अनुभोक्तुं) अनुभव करनेके लिये (आक्रीड़े) क्रीड़ा करने लगा (च) और ( यन्त्रस्था) मयूरयन्त्रमें बैठी हुई