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प्रथमोलम्बः। अथ प्रबोधितं स्वमादमबुद्ध ममुं पुनः।। बोधयन्तीव पनी यमन्तर्वनी धुरां दधौ ॥३३॥ ___ अन्वयार्थः----(अथ) इसके पश्चात् (स्वप्नात् ) स्वप्नसे (प्रबो. धित) सचेत किया हुआ (पुनः अप्रबुद्ध) और फिर अचेत (अनुम् ) इस रानाको (बोधयन्ती) ज्ञान करानेके लिये ही (इव) मानो (इय) पत्नी) यह रानी (अन्तर्वत्नी धुगं) गर्भवतीके भारको (दधौ धारण करती भई ॥ ३३ ॥ सदोहलामिमां वीक्षा दुःस्वप्न फलनिश्वयात् । अनुशंते स्म राजा यमात्मरक्षा परायणः ॥ ३४॥
अन्वयार्थ:--(आत्मरक्षापरायणः) अनी आत्माकी रक्षामें तत्पर (अयंराना) यह राजा (सदोहलां) गर्भवतीके लक्षणों सहित (इमां) इसको (वीक्ष्य) देख कर (दुःस्वप्न फलनिश्चयात् ) खोटे म्वप्नोंके फलके निश्चयसे ( अनुशतेस्म ) पाश्चाताप करने लगा ॥ ३४ ॥ मन्त्रिणां लडितं वाक्यं अभाग्येन मया मुधा । विपाके हि सतां वाक्यं विश्व सन्त्य विवेकिनः॥३२॥ ___अन्वयार्थः- (अभाग्येन) अभागी (मया) मैंने (मंत्रियाम् ) मंत्रियोंके (वाक्यं, वचनोंको मुधा) वृथा लंधितं) उल्लंघन किया अत्र नीतिः (ही) निश्चयसे (अविवेकिनः) विवेक रहित पुरुष (विपाके) अंत समय में (अर्थात् दुःख मिलने पर (सनां) सजनोंके (वाक्य) वाक्योंको (विश्वप्रति विश्वास करते हैं ॥ ३५ ॥