________________
क्षत्रचूड़ामणिः ।
नाशिनं भाविनं प्राप्यं प्राप्त च फलसंततिम् । विचाय्यैव विधातव्यमनुतापोऽन्यथा भवेत् ॥ १८॥
अन्वयार्थः--(नाशिनं ) जो वस्तु नाश होनेवाली है और जो (भाविनं) आगे होनेवाली है उसे ( प्राप्यं) प्राप्त करना चाहिये (च) और ( प्राप्ते) प्राप्त होनेपर ( फलसंततिम् ) फलों की परंपरा (विचार्य) विचार करके (एव) ही (विधातव्यं, कोई काम करना चाहिये (अन्यथा ) इसके विपरीत करनेसे (अनुतापः ) पश्चात्ताप ( भवेत् ) करना पड़ता है || १८ ||
अन्वयार्थः
इतिप्रबोधितोप्येष धुरिराज्ञां न्यवेशयत् । काष्टाङ्गार महोमोहादुडः कर्मानुसारिणी ॥ १९ ॥ इति इस प्रकार (प्रबोधितः) ममझाया हुआ (अपि) भी (एषः यह राजा (अहो ) खेद है कि (मोहात् ) मोहसे (राज्ञां राजाओं के अगाड़ी (काष्टाङ्गारं ) काष्टाङ्गारको न्य वेशयत् ) चिठलाता भया अत्र नीतिः (बुद्धिः) बुद्धि (कर्मानुसारिण) कर्मके अनुसार (भवती) होती है ॥ १९ ॥ विषवान्ध्यविचारेण विरक्तानां नृपस्य तु । प्रकृष्यमाणरागेण कालो विलयमायवान् ॥ २० ॥
i
अन्वयार्थः - (तदा) उस समय (विरक्तानां ) विषयों में विरक्त पुरुषोंका ( कालः) समय (विषगंधविचारेण) विषयों में अब विचार से अर्थात विषयों में विना वाञ्छा के ( विलयं विनाशताको (ईयवान् ) प्राप्त होता था (तु) और (नृपम्य) राजाका ( कालः) समय (प्रंटप्यमाणरागेण विषयों में अत्यंत रागसे (विलयं ईयवान्) वीतता था । २०
'