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प्रास्ताविकम् सन्धिप्रकरण के प्रथम पाद में २३ सूत्र हैं । १-२० सूत्रों में २० संज्ञाएँ निर्दिष्ट हुई हैं - वर्णसमाम्नाय, स्वर, समान, सवर्ण, ह्रस्व, दीर्घ, नामी, सन्ध्यक्षर, व्यञ्जन, वर्ग, अघोष, घोषवत्, अनुनासिक, अन्तस्था, ऊष्म, विसर्जनीय, जिह्वामूलीय, उपध्मानीय, अनुस्वार तथा पद । अन्तिम तीन सूत्र परिभाषासूत्र हैं । जिन शब्दों के साधुत्वनियम इस व्याकरण में नहीं बनाए गए हैं, उनकी सिद्धि लोकव्यवहार से कातन्त्रकार ने मानी है - "लोकोपचाराद् ग्रहणसिद्धिः” (कात० १।१।२३) ।
कातन्त्र-व्याकरण के वर्णसमाम्नाय में ५२ वर्ण पठित हैं - १४ स्वर, ३४ व्यञ्जन तथा अनुस्वार-विसर्ग-जिह्वामूलीय-उपध्मानीय उभयविध | पाणिनीय व्याकरण में ९ अच् एवं ३३ हल् वर्णों का पाठ होने से कुल वर्णसंख्या ४२ है । इन दोनों में विशेष अन्तर यह है कि कातन्त्र व्याकरण में लोकप्रसिद्ध वर्णों को तथा उनके क्रम को स्वीकार किया गया है । इसके अतिरिक्त किसी वर्ण को दो बार नहीं पढ़ा गया है, जबकि पाणिनीय व्याकरण के वर्णसमाम्नाय में अनुस्वार - विसर्ग जिह्वामूलीय-उपध्मानीय को छोड़ दिया गया है, हकार का दो बार पाठ है एवं 'यू-व-र-ल' का अक्रम से पाठ किया गया है । कातन्त्रीय वर्णसमाम्नाय के प्रारम्भिक १४ वर्गों की स्वरसंज्ञा की गई है । इन १४ वर्गों में दीर्घ ल भी पठित है | पाणिनि ने ९ ही अच् माने हैं, इनमें लू को दीर्घ नहीं माना जाता तथा अत्यन्त कल्पित अच् शब्द का व्यवहार किया जाता है | कातन्त्रकार ने लोकप्रसिद्ध स्वर शब्द का व्यवहार किया है एवं दीर्घ वर्ण भी वर्णसमाम्नाय में पढ़े हैं । इन स्वरसंज्ञक १४ वर्गों में से प्रारम्भिक १० वर्णों की समानसंज्ञा की गई है | पाणिनीय व्याकरण में यह संज्ञा नहीं है । इनमें से प्रत्येक दो-दो वर्गों की सवर्णसंज्ञा, सवर्णसंज्ञक वर्णों में भी पूर्ववर्ती की ह्रस्वसंज्ञा- परवर्ती की दीर्घसंज्ञा, स्वरसंज्ञक १४ वर्गों में से अ-आ को छोड़कर १२ वर्गों की नामी संज्ञा, ‘ए-ऐ-ओ-औ' इन चार वर्णों की सन्ध्यक्षरसंज्ञा की है । इस प्रकार स्वरसंज्ञक वर्गों में 'समान-सवर्ण-ह्रस्व-दीर्घ-नामीसन्ध्यक्षर' संज्ञाओं का व्यवहार कातन्त्रकार ने पूर्वाचार्यों के अनुसार किया है |पाणिनीय व्याकरण में ह्रस्व-दीर्घ-सवर्ण को छोड़कर शेष के लिए स्वकल्पित शब्दों का ही व्यवहार है । जैसे सन्ध्यक्षर के लिए एच् तथा नामी के लिए इच् प्रत्याहार का ।
क् से लेकर क्ष् तक के ३४ वर्गों की कातन्त्रकार ने व्यञ्जन संज्ञा की है | इसके लिए पाणिनि ने 'हल्' प्रत्याहार का प्रयोग किया है । व्यञ्जनसंज्ञक वर्गों में भी पाँच-पाँच वर्षों की वर्गसंज्ञा, 'वर्गीय प्रथम-द्वितीय-श-ष-स' वर्गों की