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प्रास्ताविकम् राजकुमारों के उद्देश्य से बनाया जाना भी इस नाम का कारण माना जाता है।
४. शावर्मिकम्
स्वामिकार्तिकेय की आराधना करके उनकी प्रसन्नता से प्राप्त व्याकरण का प्रवचन आचार्य शर्ववर्मा ने किया था, अतः इसे शार्ववर्मिक कहते हैं -
देवदेवं प्रणम्यादौ सर्वज्ञं सर्वदर्शिनम् । कातन्त्रस्य प्रवक्ष्यामि व्याख्यानं शार्ववर्मिकम् ॥
(कात० दु० वृ०-ग्रन्थारम्भ) श्रीमन्नत्वा परं ब्रह्म बालशिक्षां यथाक्रमम् । संक्षेपाद् रचयिष्यामि ‘कातन्त्रात्' शार्ववर्मिकात् ॥
(बा० शि० व्या०-ग्रन्थारम्भ) ५. दौर्गसिंहम्, दुर्गसिंहीयम्
वृत्ति, टीका, उणादिवृत्ति, लिङ्गानुशासन, परिभाषावृत्ति इत्यादि की रचना करके दुर्गसिंह ने कातन्त्र व्याकरण का पर्याप्त परिष्कार तथा परिहण किया है । अतः उनके नाम पर इसे दौर्गसिंह या दुर्गसिंहीय कहते हैं ।
विषयपरिचय
आचार्य शर्ववर्मा ने अपने व्याकरण की रचना में 'मोदकं देहि' वाक्य को आधार माना है । ‘मोदकम्' पद में 'मा+उदकम्' ऐसा सन्धिविच्छेद किया जाता है । अतः सर्वप्रथम सन्धिप्रकरण की रचना की गई है । इस अध्याय के ५ पादों तथा ७९ सूत्रों में स्वर-व्यञ्जन-प्रकृतिभाव-अनुस्वार तथा विसर्गसन्धि-विषयक नियम बताए गए हैं । 'मोदकम्' एक स्याद्यन्त पद भी है, तदनुसार द्वितीय अध्याय में नामपदसम्बन्धी विचार है ! तीन पादों में षड्लिङ्गविचार, चतुर्थ में कारक, पञ्चम में समास तथा षष्ठ पाद में तद्धित प्रकरण प्राप्त है । तद्धित और समासपाद के सूत्र श्लोकबद्ध हैं । षड्लिङ्ग- कारक- समास-तद्धित' इन चार प्रकरणों के कारण इस अध्याय को नामचतुष्टय कहते हैं । इसके छह पादों में क्रमशः ७७, ६५, ६४, ५२, २९, ५० सूत्र तथा कुल सूत्रसंख्या ३३७ है । उक्त वचन में 'मोदकम्' के