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कातन्त्ररूपमाला
लक्षणार्थे वोप्सार्थे इत्थंभूतार्थे अभिशब्द: कर्मप्रवचनीयो भवति । भागे च परिप्रती कर्मप्रवचनीयौ भवतः । चशब्दात् लक्षणार्थे वीप्सार्थे इत्थंभूतार्थे परिप्रती कर्मप्रवचनीयौ भवत: । अनुशब्द एघु पूर्वक्तिषु अर्थेषु कर्मप्रवचनीयो भवति । सहार्थे च । चशब्द: समुच्चयार्थ: । होनार्थे उपशब्द: कर्मप्रवचनीयो भवति ॥ चशब्दाद् हीनार्थे अनुशब्दः कर्मप्रवचनीयो भवति । लक्षणार्थे वृक्षमभि विद्योतते विद्युत् । वीप्साङ्के वृक्ष वृक्षमभि तिष्ठति विद्युत् । इत्थंभूतार्थे साधुदेवदत्तो मातरमभि । वृक्षं परि विद्योतते विद्युत् । वृक्षं प्रति तिष्ठति । वृक्षं वृक्षं प्रति तिष्ठति । साधु देवदत्तो मातरं परि । साधु देवदत्तो मातरं प्रति । यदा मां परि स्यात् । तदन मां प्रति स्यात् । वृक्षमनु विद्योतते विद्युत् । वृक्षं वृक्षमनुतिष्ठति । साधु देवदत्तो मातरमनु । यदत्र मामनु स्यात् । पर्वतमनु वसते सेना। अन्वर्जुनं योद्धारः। उपार्जुनादन्ये योद्धारो निकृष्टा इत्यर्थः ।
गत्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतुथ्यौं चेष्टायामनध्वनि ॥३८६ ॥ चेष्टाक्रियाणां गत्यर्थानां धातूनां प्रयोगेऽध्वनि वर्जिते कर्मणि द्वितीयाचतुथ्यौँ भवतः । ग्रामं गच्छति । ग्रामाय गच्छति । नगरं व्रजति । नगराय वति । इत्यादि । चेष्टायामिति किं ? मनसा मेरुं गच्छति । मनसा स्वर्ग मच्छति । अनध्वनीति किं ? अध्वानं गच्छति । गत्यर्थानामिति किं ? पन्थानं पृच्छति ।
लक्षण अर्थ में-वृक्षात विद्योतते विद्या- वृक्ष के नारों तरफ बिजली चमकती है। वीप्सा अर्थ में वृक्षं वृक्षमभि तिष्ठति विद्यत्-वृक्षवृक्ष पर बिजली ठहरती है। इत्थंभूत अर्थ में साधुर्देवदत्तो मातरभि—माता के विषय में देवदत्त साधु है। वृक्षं परि विद्योतते विद्युत् वृक्ष के चारों तरफ बिजली चमकती है। वृक्षं प्रति विद्युत् तिष्ठति--वृक्ष के प्रति बिजली ठहरती है। वृक्षं वृक्षं प्रति तिष्ठति वृक्ष वृक्ष पर ठहरती है। साधुदेवदत्तो मातरं परि--माता के प्रति देवदत्त साधु है। साधु देवदत्तो मातरं प्रति—माता के प्रति देवदत्त साधु है । यदत्र मां परिस्यात्-जो यहाँ मेरे हिस्से में होगा। तदत्र मां प्रति स्यात-वो ही वहाँ मेरे हिस्से में होगा। देवदत्तो मातरमनु-देवदत्त माता के पीछे हैं। यदत्र मामनु स्यात् जो वहाँ मेरे हिस्से में होगा। पर्वतमनु बसते सेना–पर्वत के पीछे सेना रहती है। अन्वर्जुन योद्धार:—सभी योद्धा अर्जुन से हीन हैं। उपार्जुनं योद्धार:--सभी योद्धा अर्जुन से हीन हैं। सभी योद्धा अर्जुन से निकृष्ट हैं यहाँ यह अर्थ है।
चेष्टा क्रिया में गत्यर्थ धातु के प्रयोग में 'अध्व' छोड़कर कर्म में द्वितीया और चतुर्थी हो जाती है ॥३८६ ॥
जैसे--ग्रामं गच्छति, ग्रामाय गच्छति--गाँव को जाता है।
चेष्टा क्रिया में हो ऐसा क्यों कहा ? मनसा मेरुं गच्छति-मन से मेरु पर जाता है। तो यहाँ चलने की क्रिया न होने से चतुर्थी नहीं हुई।
कर्म में अध्व न हो ऐसा क्यों कहा ? तो अध्वानं गच्छति-मार्ग में जाता है । यहाँ अध्व शब्द का योग होने से चतुर्थी नहीं हुई। मत्यर्थ धातु हों ऐसा क्यों कहा ? पंथानं पृच्छति-मार्ग को पूछता है । यहाँ चतुर्थी नहीं हुई क्योंकि यहाँ गत्यर्थ धातु न होकर प्रश्नार्थ धातु है।