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तिङन्तः
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ईश: परस्य सादेः सार्वधातुकस्यादाविद् भवति धुद्धि परे । ईशिषे ईशाधे ईड्रवे। ईशे ईश्वहे ईश्महे । ईशीरा ईसीमः ईशलन् । ईष्ट शाम · ईशिव ईशाला ईट्टवं । ऐशि ऐश्वहि ऐश्महि । ईश्यते । शासु अनुशिष्टौ । शास्ति ।
शासेरिदुपधाया अण्व्यानयोः ॥१२४ ।। शासेरुपधाया: इद्भवति अण्व्यञ्जनयो: परत:।
शासिवासिघसीनां च ॥१२५ ।। निमितात्पर: शासिवसिघसीनां स: षत्वमापद्यते। शिष्टः शासति । शास्सि । शिष्यात् शिष्याता शिष्युः । शास्तु शिष्टात् शिष्टां शासतु ।।
शा शास्तेश्च ॥१२६ ॥ शास्तेहाँ परे शादेशो भवति चकारात, हेधिर्भवति। शाधि, शिष्टात् शिष्टं शिष्ट । शासानि शासाव शासाम् ।
सस्य हस्तन्यां दो तः ॥१२७॥ ह्यस्तन्यां दौ परे सस्य तो भवति । अशात् अशिष्टां अशासुः ।
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ईश के परे स आदि सार्वधातुक विभक्ति से धुट के आने पर इद् का आगम हो जाता है। पुन: नामि से परे रसकार को ष होने से 'ईशिषे' बना।।
'ईश् ध्वे है छशोच' से श् को ष् होकर 'धुटां तृतीयश्चतुर्थेषु' से तृतीय अक्षर 'इ' होकर पुन: 'तवर्गस्य षटवर्गाट्टवर्ग: सूत्र से तवर्ग को टवर्ग-धू को द होकर 'ईइवे' बना।
सप्तमी में-ईशीत । पंचमी में—ईष्टां ईशाता ईशता । स्व के आने पर इट् होकर ईशिष्व 'ध्वं' में ईवं बना। हास्तनी में-ऐष्ट ऐशातां ऐशत, ऐष्ठाः ऐशाथां ऐड्दवं ऐशि ऐश्वहि ऐश्महि ।। भाव कर्म में ईश्यते । शास् धातु अनुशासन अर्थ में है। शास् ति है । शास्ति । शास् तस् है ।
अण, अगुण व्यंजन वाली विभक्ति के आने पर शास् की उपधा को इत् होता है ॥१२४॥ अत: आ को 'इ' होकर शिस् तस् रहा ।
निमित्त से परे शास वस घस के स को 'ए' हो जाता है ।।१२५ ॥ पुनः 'तवर्गस्य घट्वर्गादवर्ग:' नियम से ए से परे तवर्ग को ट्वर्ग होकर 'शिष्टः' बना। शास् अन्ति । 'जक्षादिश्च' १०९ सूत्र से शास् को अभ्यस्त संज्ञा करके 'लोपोऽभ्यस्तादन्तिनः' ११० सूत्र से अन्ति के नकार का लोप हो गया। अत: 'शासति' बना ! सप्तमी-सत्र १२४ से इत होकर 'शिष्यात' बना । 'शास् हि' 'हि' के परे शास् को 'शा' आदेश एवं चकार से हि को धि होता है ।।१२६ ॥ शाधि । शास् दि है।
ह्यस्तनी की 'दि' विभक्ति के आने पर स् को त् हो जाता है ॥१२७ ॥ एवं व्यंजनादिस्यो; सूत्र ११६ से दि सि का लोप हो जाता है । अशात् अशिष्टां । अन् को उस् होकर अशासुः । शास् सि अट का आगम होकर