________________
२२८
कातन्त्ररूपमाला
लोपे च दिस्योः ॥१४५ ॥ घढयभान्तस्य धातोरादेस्तृतीयस्य चतुर्थत्वं भवति दिस्योलोंपेऽपि । अधोक् अदुग्धां अदुहन् । अधोक् अदुग्धं अदुग्ध । अदोहं अदुह्न अदुह्म । अदुग्ध अदुहातां अदुहत । लिह आस्वादने ।
हो ढः॥१४६ ॥ धातोर्हस्य ढो भवति धुट्यन्ते च ।
हे ढलोपो दीर्घश्चोपधायाः ॥१४७ ।। ढे परे ढलोपो भवति उपधाया दीर्घश्च । लेढि लीढ: लिहन्ति । लेक्षि लीढ: लोढ । लेगि लिङ्गः लिगः । लीडे लिहाते लिहते । लिक्षे । लिहाथे लीवे लिहे लिहहे लिह्महे । लिह्यात् । लिहीत । लेढु लोढात् लीदां लिहन्तु। लेद्धि लीढात् लीढं लीड । लेहानि लेहाव लेहाम ॥ लीढ़ा लिहाता लिहतां । लिक्ष्व लिहाथां लीवं । लेहै लेहावहै लेहामहै । अलेट् अलीठां अलिहन्-अलीद । लिह्यते ॥ इत्यदादिः समाप्तः। ॥
अथ जुहोत्यादिगण: हु दानादनयोः।
जुहोत्यादेश ॥१४८ ।। जुहोत्यादेश्च परस्य विकरणस्य लुग्भवति ।
द्विवचनमनभ्यासस्यैकस्वरस्याद्यस्य ।।१४९॥
दि सि का लोप होने पर भी घ ढ ध भान्त धातु की आदि के तृतीय अक्षर को चतुर्थ हो जाता है ॥१४५ ॥
' 'अघोघे प्रथम:' से घ् को प्रथम अक्षर होकर विरामे वा से अधोक् अधोग बना । 'सि' मेंअधोकम् । अम्-अदोहं।
अदुग्ध । भाव कर्म में दह्यते। लिह धातु आस्वादन अर्थ में है।
धुट अंत के आने पर लिह के ह को 'द' हो जाता है ।।१४६ ।। लिद ति धधभेभ्यस्तथोर्थोऽध १४३ सूत्र से त, थ को ध होकर 'तवर्गस्य षट्वर्गादृवर्गः' सूत्र ११८ से ट वर्ग होकर ध् को द् हुआ। गुण होकर 'लेट् ढि' ।
ढ के परे ढ का लोप हो जाता है और उपधा को दीर्घ हो जाता है ॥१४७ ॥
अत: लेदि लीढः लिहन्ति । लिद सि है 'षढो: क: से' सूत्र ११९ से द को क् होकर स् को ए होकर लेक्षि बना। लोढे लिहाते लिहते, लिक्षे लिहाते लिध्वे सूत्र ११८ से 'वे' बनाकर “ढे ढलोपे" १४७ लू को लोप होकर लीट्वे' बना लिहे लिह्वहे, लिहहे। लिह्यात् । लिहीत । लेढ । लोढां लिहातां लिहतां, लिक्ष्व । अलेद् । अलीढ । भावकर्म में लियते ।
इस प्रकार से अदादि गण प्रकरण समाप्त हुआ।
अथ जहोत्यादि गण प्रारम्भ होता है। 'हु' धातु दान देने और खाने अर्थ में है। 'हुज्जति' है।
जुहोत्यादि से परे विकरण का लुक् हो जाता है ॥१४८ ॥ धातु के अवयव भूतअनभ्यास, एक स्वर वाले आदि के वर्ण को द्वित्व हो जाता है ॥१४९ ॥