Book Title: Katantra Roopmala
Author(s): Sharvavarma Acharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 275
________________ तिङन्तः अलोपे समानस्य सन्वल्लघुनीनि चण्परे ॥२९६ ॥ समानस्यालोपे सति लघुनि धात्वक्षरे अभ्यासस्य सन्वत्कार्यं भवति इनि चण्परे । किं सन्वत्कार्य ? सन्यवर्णस्य ॥२९७ ॥ अभ्यासावर्णस्य इत्वं भवति सनि परे । अपीपलत् अपीपलता अपीपलन् । अलोपे समानस्येति किं ? अदन्ताः कथं वाक्यप्रबन्ये इत्यादयः । धातोश ॥२९८ ।। अनेकाक्षरस्य धातोरन्ते स्वरादेलोपो भवति इनि परे । अचकथत् अचकथतां अचकथन् । एवं रच प्रयत्ने । व्यररचत् व्यररचता व्यररचन् । इत्यादि । समानस्येति किम् ? पटुमाचष्टे पटुं करोति तत्करोति सदाचष्टे इति इन् . परन् । वृद्ध समारम्लोप: । रूप रूपक्रियायां । व्यरुरूपत् व्यरुरूपतां व्यरुरूपन्। लघुनि धात्वक्षरे इति किं ? तर्ज भर्ल्स सन्तर्जने। अततर्जत अततजेंतां अततर्जन्त । संयोगविसर्गानुस्वारपरोऽपि गुरु: स्याद् ह्रस्व: । अबभर्त्सत अबभर्सेताम् अबभर्त्सन्त । वृङ् वरणे । अवीवरत् अवीवरतां अवीवरन् । अततन्त्रत् ।। स्वरादेर्द्वितीयस्य ॥२९९ ॥ स्वरादेर्धातोर्द्वितीयावयवस्य द्विर्वचनं भवति । तत्र च । न नबदरा: संयोगादयोऽये ॥३०॥ स्वरादेर्धातोर्दियीयावयवस्य संयोगादयो नबदरा न द्विरुच्यन्ते न तु ये परे । अर्च पूजायां । आर्चिचत् आर्चिचतां आर्चिचन् । एवं अई पूजायां । आर्जिहत् । समान के अलोप होने पर लघु धात्वक्षर के आने पर अभ्यास को सन्वत् कार्य होता है इन् चण् के आने पर ॥२९६ ॥ सन्वत् कार्य क्या है ? सन् के आने पर अभ्यास के अकार को इकार हो जाता है ॥२९७ ॥ अपीपलत् । अलोप में असमान को ऐसा क्यों कहा ? अदन्त धातु में 'कथ'-कहता है । इन् के आने पर अनेकाक्षर धातु के अंत स्वर का लोप हो जाता है ॥२९८ ॥ अचकथत् । रच-प्रयल करना-अररचत्-- व्यररचत् । समानस्य ऐसा क्यों कहा ? पटुं आवष्टे, पटुं करोति है “तत्करोति तदाचष्टे इन्" इस सूत्र से इन् होकर द्वित्व होकर अपीपटत् । वृद्धि में संध्यक्षर का लोप हो जाता है 1 रूप-धातु रूप क्रिया अर्थ में हैं । व्यरु रूपत्--अभ्यास को ह्रस्व हुआ है । लघु धात्वक्षर में ऐसा क्यों कहा है ? तर्ज भर्ल्स-संतर्जन करना अततर्जत । 'संयोगविसर्गानुस्वार परोपि' से गुरु ह्रस्व हो गया अवभर्त्सत । वृङ्वरण अर्थ में है। अवीवरत् । अततम्बत् । स्वरादि धातु के द्वितीय अवयव को द्वित्व होता है ॥२९९ ॥ और उसमें स्वरादि धातु के द्वितीय अवयव के संयोगादि 'न ब द र' अक्षर द्वित्व नहीं होते हैं और य प्रत्यय के परे भी द्वित्व नहीं होते हैं ॥३०० ॥ अर्च-पूजा करना । अर्च च त् ‘सन्यवर्णस्य' सूत्र २९७ से इकार होकर आर्चिचत् । अर्हपूजा योग्य है--आर्जिहत् ।

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