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कातन्त्ररूएमाला
ध्याप्योः ॥६५८।। ध्याप्योः सम्प्रसारणं दीर्घमापद्यते क्वौ परे । आधी: । व्याधी: । आपी: । वचनात्सप्प्रसारणं सिद्धम् ।
पञ्चमोपधाया धटि चागुणे ॥६५९ ।। पञ्चमान्तस्थोपधाया: क्वौ धुटि चागुणे प्रत्यये परे दौ? भवति ।
मो नो धातोः ।।६६० ॥ धातोर्मकारस्य नकारो भवति धुट्यन्ते च । प्रशान् । प्रतान् ।
च्छवोः शूठौ पञ्चमे च ॥६६१ ।। छकारवकारयोः शू ऊठि-त्यैतौ भवत: क्वो धुट्यगुणे पञ्चमे च । लिश विछ गतौ । विछ गोविद् प्रच्छ ज्ञोप्सायां । पथिएट । क्वचिद् हस्वस्य दीर्घता । दिव् अक्षयूः । षिव् स्यू: । प्रच्छ प्रष्टः पृष्ट्वा । दिल द्यूत: द्यूत्वा । विच्छ विश्न: । छस्य द्विः पाठे निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः ।।
श्रिव्यविमवितरित्वरामुपधयो॥६६२।। एयामुपधया सह वकारस्य ऊठ् भवति क्वाँ धुट्यगुणे पञ्चमे च 1 श्रिवु गतिशोषणयोः । श्रूः । अव रक्ष पालने । अब ऊ । मव्य बन्धने मू: । ज्वर रोगे जू: । त्वर तूः ।
राल्लोप्यौ ॥६६३ ॥
विष के आने पर ध्या, 'या का प्रसारण दीर्घ हो जाता है ॥६५८ ॥ आ ध्या-धी = आधी:, आपी: इस सूत्र से संप्रसारण सिद्ध है।
पंचमान्तस्थ की उपधा को क्विप् और धुद अगुण विभक्ति के आने पर दीर्घ हो जाता है ॥६५९ ॥ प्रशाम्यति इति प्रशम्-प्रशाम् बना । क्विप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप हो गया पुन:
धुट् अन्त के आने पर धातु के मकार का नकार हो जाता है ॥६६० ॥ प्रशान् प्रतान् । प्रताम्यतीति प्रतान् ।।
क्विप और धुट अगुण पंचम अक्षर के आने पर छकार वकार को श और व को इट् आदेश होता है ॥६६१॥
लिश, विछ—गमन करना। गोविट् शानुबंध से सार्वधातुकवत् कार्य होता है । अत: प्रच्छ से—पन्थानं पृच्छति इति पथिप्राट् क्वचित् कहीं पर “ह्रस्वस्य दीर्घता” ४७० सूत्र से दीर्घ हो गया है।
दिव् के व् को ऊ होकर अक्षैदींव्यति अक्षयूः षिव्-स्यू: । प्रच्छ से प्रष्टः पृष्ट्वा, दिव्-घूतः द्यूत्वा । विच्छ-विश्न: छ का द्वित्व पाठ है किंतु निमित्त के अभाव में नैमित्तिक का भी अभाव हो जाता है । वितप् और धुर् अगुण पंचम प्रत्यय के आने पर श्रिव अन् ।
मव् ज्वर त्वर के उपधा सहित वकार को ऊद हो जाता है ॥६६२ ॥ श्रिवु–गति और शोषण, श्रिव् की इ और व को ऊठ् होकर श्रू बना लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में 'शू:' बना।
अव से 'ऊ' मव से मू: ज्वर् से जू: त्वर से तू: बना ।
रेफ से परे धुट् अगुण पञ्चम और क्लिप के आने पर छकार वकार का लोप हो जाता है ॥६६३॥